गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

बस एक कहानी

भाग-1
बात उन दिनों की है जब लोगों के दिल बड़े हुआ करते थे। बहुत जगह होती थी उसमे दूसरों के लिए। जितनी जगह थी उससे कहीं ज्यादा प्यार था। उनही लोगों में से एक मैं भी था। हाँ मैं, दिल्ली में पैदा हुआ, दिल्ली में पला-बढ़ा, दिल्ली में रहने वाला एक खुशदिल इंसान। बारहवीं में था तब, 2002 में। मोहल्ले के शरीफ और पढ़ाकू टाईप लड़कों में गिनती थी मेरी। था भी ऐसा ही शायद। बारहवीं के बोर्ड के एग्जाम आने वाले थे, तब पहली बार देखा था 'उसे'। देखते ही जहां था वहीं रह गया। सीधी-सादी, लोगों से बेखबर, अपने में ही छुपी हुयी सी। घर बन रहा था उसका हमारी गली में, तो देखने आई थी परिवार के साथ। हालांकि मेरे और उसके परिवार में बड़े यानी मम्मी-पापा एक दूसरे को काफी पहले से जानते थे, लेकिन हम बच्चे कभी नहीं मिले थे। कभी मिलें भी होंगे तो ध्यान नहीं दिया होगा।

उस दिन उसे पहली बार देखा तो देखता ही रह गया। लेकिन उसने शायद मुझपर ध्यान नहीं दिया था तब। उस दिन उसके जाने के बाद सोचता ही रहा उसके बार में। और तब से लेकर उसके अपने नए मकान में आने तक कई बार बस ऐसे ही चलता रहा। वो आती और में छुप-छुपकर उसे देखता रहता, कभी अपने छज्जे से तो कभी गली में एक कोने में खड़ा रहकर। इतने दिनों में शायद उसका ध्यान एकाध बार ही मुझपर गया होगा। इधर मेरे एग्जाम खत्म हुये और उधर कुछ ही दिनों बाद मई के महीने मे उनका गृह-प्रवेश हुआ। मैं कुछ ज्यादा ही खुश था, एक तो मेरी छुट्टियाँ थीं और दूसरे वो परमानेंटली आ गयी थी अपने नए घर में, मेरे घर के पास। उस समय उसने भी दसवीं के बोर्ड के एग्जाम दिये थे सो दोनों को इंतज़ार था अपने-अपने रिज़ल्ट का, साथ ही छुट्टियाँ तो थी ही। इस बीच मुझे जब भी मौका मिलता मैं चला जाता उसके छोटे भाइयों से मिलने, लेकिन घर के बाहर तक ही। कभी घर के अंदर जाने का मौका नहीं मिला। कुछ दिन ऐसा ही चला। लेकिन एक दिन उसकी मम्मी यानि हमारी आंटी जी आई हुयी थी हमारे घर पर। मैंने सोचा अच्छा मौका है नाम जानने का तो बातों-बातों में पूछ लिया---आंटी जी आपके लड़कों को तो मैं जनता हूँ लेकिन आपकी एक लड़की भी है न । प्रश्न सीधा था लेकिन बिना डरे पूछ लिया। उन्होने भी प्यार से जवाब दिया हाँ, इन दोनों से बड़ी लड़की है एक, नाम भी बताया उसका स्कूल का भी और घर का भी। बस यही तो चाहिए था मुझे, सो मिल गया। आंटी ने बातों-बातों में औरों की तरह मेरी तारीफ के दो शब्द बोल दिये मम्मी से---सीधा लड़का है आपका। मैं बस मुस्कुरा कर रह गया। फिर तो लगभग रोज़ ही उसके घर तक जाना हो जाता लेकिन उसके घर के अंदर कभी नहीं गया।

जुलाई का महीना था शायद। तब तक मेरा कॉलेज में दाखिला भी हो गया था। एक दिन कॉलेज से घर लौटते हुये उसके घर के सामने से गुज़रा, जो मेरा रोज़ का रास्ता हो गया था तब तक, अचानक पीछे से आई एक आवाज़ ने मुझे रोक लिया---"सुनिए"
सुनते ही मैं धक सा जहां का तहां खड़ा रह गया। पीछे मुड़ा तो देखा वही थी। बस क्या हालत हुयी थी मेरी, पता नहीं। मैंने थोड़ा संभालते हुये बोला,
हाँ......हाँ बोलिए।
उसने कहा, कुछ खास नहीं बस ऐसे ही रोज़ घर के बाहर से ही जाते हो लेकिन अंदर कभी नहीं आते।
मैंने भी तुरंत शिकायत भरे लहजे में जवाब दिया-कोई बुलाता ही नहीं।
इतना सुनते ही उसने कहा- अच्छा चलिये आज मैं बुला रही हूँ, आइये अंदर।
अंदर गया तो देखा उसके दोनों भाई भी बैठे हुये थे वहीं हॉल में। मैंने मन ही मन सोचा क्यों हैं। लेकिन बिना कुछ कहे अंदर चला गया। पहली बार गया था घर में, अच्छा बना था। उस समय शायद कॉलोनी का सबसे शानदार घर। थोड़ी देर वहाँ रुका, बातें की, आंटी से मिला और वापस आ गया अपने घर। फिर तो गाहे-बगाहे जब भी मौका मिलता चला जाता था उसके घर, सबसे मिलने के बहाने उससे मिलने।

इधर बीच कॉलेज से ट्रान्सफर भी करा लिया, मैंने भी और मेरे दोस्त ने भी। अलग-अलग कॉलेज में दाखिला मिला था हमे। दोस्ती पक्की थी तो मन नहीं लगा। आ गए एक ही कॉलेज में। ईवनिंग कॉलेज था लेकिन खुश थे कि एक साथ आ गए। एक दिन बातों-बातों में उसको बता दिया कि एक लड़की पसंद है मुझे। बस फिर तो वो अति-उत्साही एक-एक करके पूछता चला गया। कौन है? कहाँ रहती है? उसे बताया कि नहीं? क्यों नहीं बताया? वगैरह-वगैरह।  उस दिन वो कॉलेज से मेरे घर साथ में आया। वैसे रोज़ आता था लेकिन उस दिन सिर्फ आने के लिए नहीं बल्कि अपनी 'कभी ना हो सकने वाली भाभी' यानि 'उसे' देखने के लिए।
'कभी ना होने वाली भाभी'..........हाँ, यही नाम तो दिया था मेरे दोस्त ने उसे आगे चल कर।

खैर, एक दिन 'उसके' के घर से रात के खाने का न्योता आया। जन्मदिन था शायद किसी का। सुनते ही मैं खुश हो गया चलो आज काफी समय मिलेगा उससे बात करने का। शाम का जितनी बेसब्री से इंतज़ार किया था उतनी ही जल्दी मैं चला गया उसके घर, दिये गए समय से पहले ही। मम्मी को बोल दिया मैं जा रहा हूँ आप लोग आ जाना। उस दिन काफी कुछ जाना उसके बारे में। उसका स्कूल, उसकी पसंद, फेवरेट टाइमपास जो एक ही उस समय मेरा भी और उसका भी...गार्डनिंग। खाने के लिए आवाज़ आई तो हम लोग ऊपर गए। उस दिन शायद मैंने ही हमेशा से ज्यादा खा लिया था या शायद खिलाने वाले ने ज्यादा प्यार से खिलाया था। खाने के बाद घर देखने के बहाने छत पर गया। साथ में 'वो' भी थी।
छत पर उसने पूछा, "खाना कैसा लगा?"
मैंने भी सवाल के बदले में सवाल कर दिया, "आपने बनाया है क्या?"
उसकी हाँ सुनते ही मैंने भी जवाब दिया, बहुत अच्छा था शायद इसीलिए ज्यादा खा लिया आज।
सुनकर वो धीरे से मुस्कुरा दी। उस चाँदनी रात में उसके उजले चेहरे की वो मोहने वाली मुस्कुराहट आज भी याद है मुझे। मैं उसे देख ही रहा था कि इतने में उसका सबसे छोटा भाई आ गया। जिसे देखते ही मुझे आग लग गयी लेकिन रिएक्ट नहीं कर सकता था तो बात संभालते हुये बोला अच्छे पौधे हैं लेकिन गमलों में घास-फूस ज्यादा है, हटा दिया करो वरना पौधों पर असर पड़ेगा।

उस दिन पता चला कि ग्यारहवीं में साइन्स साइड ली है। कठिन है इसलिए कोचिंग क्लास भी जाती है। बातों-बातों में पता लगा लिया दिन का पूरा शेडूल। बस तब से रोज़ सुबह साढ़े पाँच बजे उठने की आदत डाल ली। उठकर पहले छत पर जाता फिर नीचे आकर छज्जे पर लटक जाता। क्योंकि रोज़ सुबह वो अपने छज्जे पर आती थी बाल बनाने। बस उस दिन से तो जैसे ये नियम ही बन गया था। घर वाले खुश थे कि लड़का जल्दी उठ जाता है सुबह और लड़का खुश था कि उसे जो चाहिए उसे मिल जाता है-----सुबह -सुबह उसके चेहरे की एक झलक। ऐसे ही चलने लगा रोज़, सुबह उठकर उसके छज्जे पर आने का इंतज़ार और दोपहर में उसके स्कूल से वापस आने का इंतज़ार। उन दिनो हमने यानि मैंने और मेरे दोस्त ने कम्प्युटर कोर्स भी जॉइन किया हुआ था सुबह का ही। अक्सर मेरी कोशिश रहती थी कि सुबह उसके स्कूल जाने के साथ ही मैं भी घर से निकलूँ कम्प्युटर क्लास के लिए क्योकि हम दोनों का आधा रास्ता एक ही था। फिर चाहे जाकर अपने दोस्त के घर ही क्यों न बैठना पड़े। और दोपहर उसके स्कूल के टाइम ही वापस घर आना ताकि एक बार फिर देख सकूँ उसे। बस ऐसे ही काफी दिनों तक चला ये पागलपन, लेकिन सिर्फ मेरा,  उसका नहीं।

1 टिप्पणी:

  1. वैसे हरबार कहना ज़रूरी नहीं पर यह पोस्ट बढ़िया बन पड़ी है. ऐसे लिखने के कुछ खतरे हमेशा बने रहते हैं, फ़िर भी इनका कहा जाना ज़रूरी है. वो झिझक आज इसी टूटे यह बड़ी बात है. कुछ बातें अंदर नहीं रह पातीं और उसमें भी थोड़े हम जैसे लड़के जो लड़कियों को कहने में हमेशा थोड़े शरमाते रहे. यह हमारी कमज़ोरी ही रही होगी, जो ऐसे नहीं हो सके. इसे 'उत्तर-वैवाहिक पाठ' भी निकलते रहेंगे, इसकी चिंता मत करना। चिंता उसकी मत करना। समझे।

    चलो अब चलता हूँ. थोड़ा पढ़ना भी है. लिखते रहो. दूसरी किश्त के इंतज़ार में.

    जवाब देंहटाएं