शुक्रवार, 1 मई 2015

बस एक कहानी

भाग-2
एक दिन मेरा वो अतिउत्साही दोस्त पीछे ही पड़ गया कि आज तो तुझे बोलनी ही पड़ेगी उससे अपनी बात। वैसे वो पहले भी कई बार कह चुका था ऐसा करने को लेकिन आज शायद ठान के ही आया था। बहुत मना किया मैंने लेकिन वो नहीं माना तो मुझे मानना पड़ा। डिसाइड हुआ कब और कैसे बोलना है, दोपहर में कॉलेज जाते हुये किसी एसटीडी बूथ से, तब तक वो भी आ जाती है स्कूल से। सो प्लान के मुताबिक गए एक फोन बूथ पर, आज भी नाम याद है उसका लेकिन बताना ज़रूरी नहीं।
फोन करना है लोकल, केबिन से।
बूथ वाला भी होशियार था, बोला केबिन का पैसा अलग लगेगा। शायद समझ गया था हमारी मंशा या शायद उस समय केबिन का प्रयोग इसी लिए किया जाता होगा। जो भी था हमने भी बोल दिया ठीक है। बस फिर मैं केबिन के अंदर और मेरा दोस्त बाहर। फोन मिलाया, घंटी बजी फोन की भी और दिल की भी। इत्तेफाक से फोन उसी ने उठाया। 
हैलो.....हैलो.....कौन.....हैलो...
डर के मारे आवाज़ गले में ही रह गयी और फोन रख दिया। बिना कुछ बोले बिना कुछ कहे। लेकिन बाहर भी नही जा सकता था, खड़ा था ना मेरा अंकल मेरा दोस्त केबिन से कान सटाए। मुझे फोन रखता देख बाहर से ही इशारा किया दोबारा मिलने का। उधर बूथ वाला हमें देखे जा रहा था कि कर क्या रहे हैं ये लड़के। लेकिन उसे क्या मतलब था उसका तो फायेदा हो रहा था लोकल कॉल के लिए एसटीडी के पैसे मिलने थे उसे तो। मैंने दोबारा फोन मिलाया, इस बार फिर वही थी दूसरी तरफ।
हैलो....।
मैं भी धीरे से बोला...ह....हैलो...मैं।
कौन...???
मैंने अपना नाम बताया।
हाँ बोलो...क्या हुआ?
मैं क्या बोलता लेकिन बात तो करनी ही थी आज तो पहले पूछ लिया, एक बात कहनी थी आप बुरा ना माने तो।
हाँ बोलो क्या बात है। मैं बुरा क्यों मानूँगी।
मैंने अपने को थोड़ा संभाला और बिना कोई और बात किया बोल दिया.....आइ लव यू!!!
इतना बोलते ही फोन कट गया, मेरी तरफ से नहीं उसकी तरफ से। मेरी तो हालत खराब हो गयी, काही गुस्सा तो नहीं हो गयी? किसी को बता न दे। पता नहीं क्या-क्या बातें घूमने लगीं दिमाग में। केबिन से बाहर आया तो दोस्त ने पूछा क्या हुआ? क्या बोली वो? तूने बोल दिया? मैंने भी डरते-डरते बता दिया सब, हाँ यार बता तो दिया लेकिन फोन काट दिया उसने तो।
वो बोला फिर मिला एक बार, देख क्या बोलती है। मैंने मना किया लेकिन वो नहीं माना और मिलवा दिया फोन। इस बार वो शायद इंतज़ार कर रही थी मेरे फोन का, घंटी बजते ही उठा लिया।
मैंने पूछा, क्या हुआ, फोन क्यों काट दिया?
वो भी शायद डरते हुये ही लेकिन थोड़ा गुस्से में बोली-आपको नहीं पता क्या हुआ? क्या किया है आपने?
मैंने कहा-क्या किया, जो सच है वही तो बोला।
अब शायद मैं ज्यादा विश्वास के साथ बोल पा रहा था।
उसने कहा-कुछ सच नहीं है? क्या होगा इससे? घरवालों को पता चल गया तो पता है क्या करेंगे वो लोग?
मैंने कहा-क्यों पता चलेगा? कौन बताएगा? आप? और पता चल भी गया तो क्या हुआ, गलत क्या कहा है मैंने?
उसने शायद उसी समय भविष्य देख लिया था। मुझे समझते हुये बोली, इन सब बातों का कोई मतलब नहीं है, कोई फ्युचर नहीं होगा इसका। अट्रैक्शन है बस और कुछ नहीं। मैंने कहा आपके लिए अट्रैक्शन होगा मेरे लिए नहीं। बस इस तरह वो अपनी बात पर अड़ी रही और मैं अपनी। अंत में मैंने ही सीधे पूछ लिया सबको भूल जाओ और बोलो हाँ या ना। इतना सुनते ही उसने फोन काट दिया। उस समय तो नहीं लेकिन आज सोचता हूँ इतना आसान नहीं था उसके लिए जवाब दे देना। लेकिन लगता है दो गलतियाँ हो गयी थी उस दिन, एक मैंने बहुत जल्दी कर दी थी पूछने में और दूसरी, उसने बहुत देर कर दी थी जवाब देने में।

उस दिन थोड़ा उदास हो कर कॉलेज गया और शाम को उतना ही डरते हुये हम दोनों घर लौटे। डर ये कि कहीं उसने बता ना दिया हो अपने घर पे किसी को और हमारी खबर ले ली जाए। डांट या मार की चिंता नहीं थी बस एक ही चिंता थी कि अभी तक की बनी-बनाई इज्ज़त खत्म हो जाएगी। रास्ते भर अपने दोस्त को कोसते हुये आया, कि क्या करवा दिया तूने आज। लेकिन घर तो आना ही था। वापस उसके घर के सामने से लौटे तो देखा वो खड़ी थी अपने छज्जे पर। धीरे से आँख उठा कर ऊपर देखा तो वो थोड़ा सा मुस्कुरा दी। उसे मुसकुराते देख थोड़ा सुकून मिला दिल को कि स्थिति नियंत्रण में है। उसके बाद से मेरे रोज़ के कामों में उस समय का शायद सबसे ज़रूरी एक काम ये भी शामिल हो गया था, उसे फोन करना और मानना अपने लिए। प्यार से, कभी थोड़ा गुस्से से कि अब कभी बात नहीं करूंगा आपसे। लेकिन उसे भी पता था मेरा ये झूठ, कभी बात ना करने वाला।

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