बुधवार, 13 मई 2015

रिश्तों का 'बंधन'

पिछले कुछ दिनों से रिश्तों के मायने बदल रहे हैं और ये बदलना इस कदर है कि कल तक जो रिश्ते थे वे आज बंधन में तब्दील हो रहे हैं। इन बंधनों से मुक्त होने की छटपटाहट इस स्तर तक बढ़ती जा रही है कि मर्यादाएँ टूट रही हैं। कैसे भी, कुछ भी हो जाए बस छूटना चाहते हैं या छोड़ देना चाहते हैं, बिना पीछे देखे, बिना आगे की सोचे। अभी चंद रोज़ पहले तक मिले-जुले परिवार को बंद मुट्ठी माना जाता है, जिसमे एकता और शक्ति भी होती थी और राज़दारी भी, लेकिन अब उस बंद मुट्ठी की उँगलियाँ दुखने लगती हैं और खुल जाना चाहती हैं। 'एकल परिवार सुखी परिवार' सरीखी सोच घर करती जा रही है आज के युवाओं के मन में। 

क्या ये बदलाव अचानक है या धीरे-धीरे विकसित हुआ है? इस बदलाव के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या जीवन के आधुनिक मूल्य परम्पराओं, संस्कृति व संस्कारों पर हावी होते जा रहे हैं? क्या ये पीढ़ियों के बीच वैचारिक टकराव का परिणाम है? इस बदलाव के लिए जिम्मेदार कौन है इसका निर्धारण आसान नहीं है। कहीं परम्परा, कहीं आधुनिकता, कहीं अत्यधिक लगाव, कहीं अत्यधिक उपेक्षा, और भी बहुत कुछ। कारण एक भी हो सकता है और सबका मिलाजुला रूप भी। असल में हम सभी जानते हैं कि रिश्ते ना आसानी से बनते है और ना ही ख़त्म होते हैं। फिर भी हम इनसे भाग रहे हैं, दूर, और दूर। इतनी दूर जहाँ से पीछे मुड़कर देखने पर भी ये दिखाई ना दें, इतनी दूर जहाँ हम नए रिश्तों से जुड़ सकें, लेकिन अपनी शर्तों पर या शायद एक समझौता कर सकें, अपने ही जैसे कुछ नए लोगों से। समझौता भी ऐसा कि जब तक हमें या आपको कोई ज़रूरत न दिखाई दे हम एक दूसरे को नहीं जानते। बस यहीं तक सीमित होकर रह जाना चाहते हैं हम। ये सीमितता उस असीमित लगाव और अपनेपन से ज्यादा भाती है हमें जो हम कहीं पीछे बहुत दूर छोड़ आये हैं। बचपन से सुनते आये हैं बिना जड़ के पेड़ सूख जाता है ना उसमे नयी शाखाएं आती हैं ना फल। फिर भी हम अपनी जड़ों से दूर होना स्वीकार कर लेते हैं। आखिर क्यों और कब तक?

इस समस्या का एक दूसरा पहलू यह भी है कि यह प्रवृति केवल युवाओं मे ही नहीं है, इसलिए सिर्फ उनको दोष देना बेमानी होगा। मेरे कुछ मित्र ऐसे भी हैं जो भागे नहीं बल्कि उन्हे भगा दिया गया। इसलिए नहीं कि वो गलत थे बल्कि इसलिए कि उन्होने अपने को, अपनी सोच को तीस साल पीछे ले जाना ठीक नहीं समझा और इसका विरोध किया। लेकिन ये विरोध किसी का अपमान करने के लिए नहीं था, बल्कि अपना सम्मान बनाए और बचाए रखने के लिए था। वे अपने संस्कारों और आधुनिक जीवनशैली के बीच सामंजस्य बनाकर जीना चाहते थे। सिर्फ स्वतंत्र होकर, स्वच्छंद होकर नहीं। इसी का परिणाम उन्हे भुगतना पड़ा, अपने घरों और अपनों से दूर होकर। ऐसी परिस्थितियों में यह तय करना कठिन हो जाता है कि गलती किसकी। बड़े आगे आना नहीं चाहते और छोटे पीछे जाना नहीं चाहते। कई मामलों में देखा गया है कि युवाओं द्वारा किसी बदलाव की बात को बड़े-बुजुर्गों द्वारा असभ्यता माना जाता है और खारिज कर दिया जाता है। विचारों को बिना सुने, बिना समझे खारिज कर देने कि यह प्रवृत्ति जिस टकराव और जिस हठ को जन्म देती है उसका परिणाम होता है टकराव, मतों में भी और मनों में भी और अंत में पलायन। जिसका ठीकरा सिर्फ एक पक्ष यानि युवाओं पर फोड़ दिया जाता है, कि वे ही गलत हैं।

ये सही है कि घर के बड़े परिवार को बंद मुट्ठी की तरह रखें सबको जोड़कर, लेकिन उन्हे यह भी देखना पड़ेगा कि उस बंद मुट्ठी में किसी उंगली को आवश्यकता से अधिक ना दबाया जाए ताकि उसे किसी तरह की कोई घुटन ना हो। अगर ऐसा हुआ तो वो खुलना चाहेगी, छूटना चाहेगी और भाग जाना चाहेगी उस दर्द और घुटन से दूर, जिसे शक्ति, एकता और राज़दारी के नाम पर सिर्फ वो ही सहन कर रही है। इस बात से बेखबर कि लोग क्या सोचेंगे, कहेंगे। ज़रूरी है कि सामंजस्य बनाया जाए परंपरा और आधुनिकता के बीच। माँ-बात को उस सेतु की तरह माना जाता है जो दो पीढ़ियों को मिलाने का काम करता है। इसलिए इस प्रक्रिया में उन्हे दोनों की भावनाओं, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और विचारों में तालमेल बनाना पड़ेगा। लेकिन ये काम सिर्फ माँ-बाप का है ऐसा नहीं है, क्योंकि एकपक्षीय बदलाव सकारात्मक नहीं होते। बच्चों को भी एक स्तर पर संयम से काम लेते हुये परिस्थितियों को स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि बदलाव ज़रूरी होते हैं, लेकिन रातों-रात हों ये ज़रूरी नहीं। समय लगता है कुछ बदलने में, कुछ नया बनाने में। उन्हे इस बात को समझना होगा और स्वीकार करना होगा कि पलायन समस्याओं का हल नहीं होता बल्कि यह स्वयं में एक समस्या है। जिस भूमिका में आज हम अपने माँ-बाप को देख रहे हैं कल वही भूमिका हमारी भी होगी। हम भी सेतु बनेंगे लेकिन उस सेतु को जोड़ने के लिए दूसरा छोर नहीं मिलेगा।

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