शुक्रवार, 8 मई 2015

छोटी सी पोस्ट

बीते 26 अप्रैल को माँ गाँव से वापस आई। लगभग 12 दिनों के बाद। वैसे तो घर के दूसरे सदस्य भी गाँव जाते हैं, लेकिन माँ का जाना कुछ अलग होता है और उससे भी कहीं ज्यादा अलग होता है उनका वापस आना। वो वहाँ से कभी अकेले नहीं आती बल्कि उनके साथ पूरा गाँव वापस आता है। और उस गाँव का आना केवल उनकी बातों में ही नहीं होता बल्कि उन चीजों में भी होता है जो वे लाती हैं। ऐसी चीज़ें जो आज के बाजारीकृत समाज में भी अपना देसीपन बनाए हुये हैं। हाँ, गंवई स्वाद से लबरेज खालिस देसी।

इस बार माँ एक शादी में गयी थीं। अब गाँव की शादी का अपना ही मज़ा होता है जो शादी होने के बाद भी कई दिनों तक बना रहता है, "सभी के लिए"। शहरों की तरह नहीं कि घर के अंदर शादी हो रही है और बाहर टेंट-बल्ली उखड़नी शुरू। खैर, माँ शादी के घर से वापस आई तो हम सब के लिए उस शादी का स्वाद साथ में लायी थी। देशी लड्डू। वैसे तो लड्डू देशी ही होता है, लेकिन वो लड्डू शहरों के ब्रांडेड लड्डुओं से स्वाद और साइज़ में उनसे कहीं बेहतर होता है। सिर्फ लड्डू ही नहीं उसके साथ बुनवा, गुल्लईया, खाझा और गट्टा(शचीन्द्र इसे कुछ और कहता है) भी था। इनमे से कई चीजों का तो नाम ही नहीं जानते होंगे शहरों में। लड्डू, खाझा और गट्टा तो शादी के बाद आस-पड़ोस और सगे-संबंधियों को बैने के रूप में बंटने वाले बुलावे के तौर पर आते हैं, घर में आयी नयी बहू की मुँह दिखाई का आमंत्रण। वैसे ऐसे ही एक आमंत्रण का इंतज़ार मैं भी कर रहा हूँ बीते 08 मार्च से, लेकिन अभी तक नहीं मिला। शायद यहाँ शहरों में नहीं होता ऐसा कुछ।

खैर, माँ अपने साथ सिर्फ गाँव की मिठास ही नहीं लायी थी उसके साथ आया था वहाँ का अचार, कोंहड़ौरी और पता नहीं क्या-क्या। गाँव की बातें करने के साथ-साथ एक-एक पिटारा खुलता है जिसमे से गाँव टुकड़ो में बाहर आता है। आज की इस भागदौड़ के बीच गाँव जाना एक बोझिल यात्रा की तरह लगता है, सबको तो नहीं अधिकांश को। उनके लिए गाँव जाने का मतलब गाँव जाने की औपचारिकता भर निभाने से ज्यादा कुछ नहीं होता। ऐसे लोगों को गाँव जाना एक जंजाल लगता है जिसमे उलझने से वे बचते हैं, लेकिन मेरी माँ को वहाँ से वापस आना जंजाल लगता है। शायद इसीलिए वहाँ से वापस आने पर उनकी पहली प्रतिक्रिया होती है "आ गयी जी के जंजाल में"।

दरअसल हम अपनी ज़िंदगी की उठापटक में इतने खो गए हैं कि और चीजों के लिए फुर्सत ही नहीं और अगर समय मिल भी गया तो उसे पत्थर की लाल-काली दीवारों और हौजखास या चौकीधानी जैसे सो कॉल्ड गाँव देखने में बिताना ज्यादा पसंद करते हैं बजाए अपने ठेठ देसी गाँव जाने के। शायद इसलिए क्योंकि वहाँ उन नकली गावों जैसी विलासिता और बनावटीपन नहीं होता जो हमारी ज़िंदगी का एक हिस्सा बनता जा रहा है। फिर हम ही अपनी चारदीवारी में बैठे-बैठे दुख जताते हैं कि धीरे-धीरे गाँव खत्म होते जा रहे हैं। लेकिन हम गलत हैं गाँव कभी न खत्म होने वाली एक संरचना है जिनका अपना महत्व है। हाँ उनके स्वरूप में परिवर्तन हो सकता है लेकिन इससे उनकी ठेठता खत्म नहीं होगी जो उन्हे गाँव बनती है। वो गाँव ही रहेंगे और गाहे-बगाहे वहाँ से आने वाले लोगों के जरिये ही सही, हम तक पहुँचते रहेंगे, हमारे पत्थरों से बने मकानों और पत्थर हो चुके दिलों पर दस्तक देने।

3 टिप्‍पणियां:

  1. गाँव हमेशा हमारे शहर वाले घरों में हमेशा बना हुआ रहता है। वह हमारे माता पिता के छूट गए दिनों की याद है। और हम ऐसे ही उनमें घुसपैठ करते रहेंगे। बढ़िया है, वह हममें इस तरह आवाजाही करता रहे।

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  2. उससे भी बढ़िया होगा अगर गाँव हममे नहीं हम उनमे आवाजाही करते रहें और माता-पिता के छूट गए दिनों की यादों में अपनी यादों को भी शामिल कर लें।

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  3. Good work Aashish! I would like to bring to your knowledge that these so-called villages were always in vicinity of Urban area or fringes, hence the wave of urbanization hit them fast.I also attended a friend's marriage in one so-called of Delhi, behind the tiled and Ac homes I saw a villages, chachis-maamis, buas, bacche and whole lot of gaon ka stuff.the village remains in our vivid memory and our hearts.your post reminded me of my own villages of those old times, the pre-2000 era.now my village(in NCR ) bears a town-y look, it has no innocent faces, people whattsapp each other , the streams overflow with filth.and mithai is now choc(k)late or some general sweets shop mithai.

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