बुधवार, 13 मई 2015

रिश्तों का 'बंधन'

पिछले कुछ दिनों से रिश्तों के मायने बदल रहे हैं और ये बदलना इस कदर है कि कल तक जो रिश्ते थे वे आज बंधन में तब्दील हो रहे हैं। इन बंधनों से मुक्त होने की छटपटाहट इस स्तर तक बढ़ती जा रही है कि मर्यादाएँ टूट रही हैं। कैसे भी, कुछ भी हो जाए बस छूटना चाहते हैं या छोड़ देना चाहते हैं, बिना पीछे देखे, बिना आगे की सोचे। अभी चंद रोज़ पहले तक मिले-जुले परिवार को बंद मुट्ठी माना जाता है, जिसमे एकता और शक्ति भी होती थी और राज़दारी भी, लेकिन अब उस बंद मुट्ठी की उँगलियाँ दुखने लगती हैं और खुल जाना चाहती हैं। 'एकल परिवार सुखी परिवार' सरीखी सोच घर करती जा रही है आज के युवाओं के मन में। 

क्या ये बदलाव अचानक है या धीरे-धीरे विकसित हुआ है? इस बदलाव के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या जीवन के आधुनिक मूल्य परम्पराओं, संस्कृति व संस्कारों पर हावी होते जा रहे हैं? क्या ये पीढ़ियों के बीच वैचारिक टकराव का परिणाम है? इस बदलाव के लिए जिम्मेदार कौन है इसका निर्धारण आसान नहीं है। कहीं परम्परा, कहीं आधुनिकता, कहीं अत्यधिक लगाव, कहीं अत्यधिक उपेक्षा, और भी बहुत कुछ। कारण एक भी हो सकता है और सबका मिलाजुला रूप भी। असल में हम सभी जानते हैं कि रिश्ते ना आसानी से बनते है और ना ही ख़त्म होते हैं। फिर भी हम इनसे भाग रहे हैं, दूर, और दूर। इतनी दूर जहाँ से पीछे मुड़कर देखने पर भी ये दिखाई ना दें, इतनी दूर जहाँ हम नए रिश्तों से जुड़ सकें, लेकिन अपनी शर्तों पर या शायद एक समझौता कर सकें, अपने ही जैसे कुछ नए लोगों से। समझौता भी ऐसा कि जब तक हमें या आपको कोई ज़रूरत न दिखाई दे हम एक दूसरे को नहीं जानते। बस यहीं तक सीमित होकर रह जाना चाहते हैं हम। ये सीमितता उस असीमित लगाव और अपनेपन से ज्यादा भाती है हमें जो हम कहीं पीछे बहुत दूर छोड़ आये हैं। बचपन से सुनते आये हैं बिना जड़ के पेड़ सूख जाता है ना उसमे नयी शाखाएं आती हैं ना फल। फिर भी हम अपनी जड़ों से दूर होना स्वीकार कर लेते हैं। आखिर क्यों और कब तक?

इस समस्या का एक दूसरा पहलू यह भी है कि यह प्रवृति केवल युवाओं मे ही नहीं है, इसलिए सिर्फ उनको दोष देना बेमानी होगा। मेरे कुछ मित्र ऐसे भी हैं जो भागे नहीं बल्कि उन्हे भगा दिया गया। इसलिए नहीं कि वो गलत थे बल्कि इसलिए कि उन्होने अपने को, अपनी सोच को तीस साल पीछे ले जाना ठीक नहीं समझा और इसका विरोध किया। लेकिन ये विरोध किसी का अपमान करने के लिए नहीं था, बल्कि अपना सम्मान बनाए और बचाए रखने के लिए था। वे अपने संस्कारों और आधुनिक जीवनशैली के बीच सामंजस्य बनाकर जीना चाहते थे। सिर्फ स्वतंत्र होकर, स्वच्छंद होकर नहीं। इसी का परिणाम उन्हे भुगतना पड़ा, अपने घरों और अपनों से दूर होकर। ऐसी परिस्थितियों में यह तय करना कठिन हो जाता है कि गलती किसकी। बड़े आगे आना नहीं चाहते और छोटे पीछे जाना नहीं चाहते। कई मामलों में देखा गया है कि युवाओं द्वारा किसी बदलाव की बात को बड़े-बुजुर्गों द्वारा असभ्यता माना जाता है और खारिज कर दिया जाता है। विचारों को बिना सुने, बिना समझे खारिज कर देने कि यह प्रवृत्ति जिस टकराव और जिस हठ को जन्म देती है उसका परिणाम होता है टकराव, मतों में भी और मनों में भी और अंत में पलायन। जिसका ठीकरा सिर्फ एक पक्ष यानि युवाओं पर फोड़ दिया जाता है, कि वे ही गलत हैं।

ये सही है कि घर के बड़े परिवार को बंद मुट्ठी की तरह रखें सबको जोड़कर, लेकिन उन्हे यह भी देखना पड़ेगा कि उस बंद मुट्ठी में किसी उंगली को आवश्यकता से अधिक ना दबाया जाए ताकि उसे किसी तरह की कोई घुटन ना हो। अगर ऐसा हुआ तो वो खुलना चाहेगी, छूटना चाहेगी और भाग जाना चाहेगी उस दर्द और घुटन से दूर, जिसे शक्ति, एकता और राज़दारी के नाम पर सिर्फ वो ही सहन कर रही है। इस बात से बेखबर कि लोग क्या सोचेंगे, कहेंगे। ज़रूरी है कि सामंजस्य बनाया जाए परंपरा और आधुनिकता के बीच। माँ-बात को उस सेतु की तरह माना जाता है जो दो पीढ़ियों को मिलाने का काम करता है। इसलिए इस प्रक्रिया में उन्हे दोनों की भावनाओं, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और विचारों में तालमेल बनाना पड़ेगा। लेकिन ये काम सिर्फ माँ-बाप का है ऐसा नहीं है, क्योंकि एकपक्षीय बदलाव सकारात्मक नहीं होते। बच्चों को भी एक स्तर पर संयम से काम लेते हुये परिस्थितियों को स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि बदलाव ज़रूरी होते हैं, लेकिन रातों-रात हों ये ज़रूरी नहीं। समय लगता है कुछ बदलने में, कुछ नया बनाने में। उन्हे इस बात को समझना होगा और स्वीकार करना होगा कि पलायन समस्याओं का हल नहीं होता बल्कि यह स्वयं में एक समस्या है। जिस भूमिका में आज हम अपने माँ-बाप को देख रहे हैं कल वही भूमिका हमारी भी होगी। हम भी सेतु बनेंगे लेकिन उस सेतु को जोड़ने के लिए दूसरा छोर नहीं मिलेगा।

शुक्रवार, 8 मई 2015

छोटी सी पोस्ट

बीते 26 अप्रैल को माँ गाँव से वापस आई। लगभग 12 दिनों के बाद। वैसे तो घर के दूसरे सदस्य भी गाँव जाते हैं, लेकिन माँ का जाना कुछ अलग होता है और उससे भी कहीं ज्यादा अलग होता है उनका वापस आना। वो वहाँ से कभी अकेले नहीं आती बल्कि उनके साथ पूरा गाँव वापस आता है। और उस गाँव का आना केवल उनकी बातों में ही नहीं होता बल्कि उन चीजों में भी होता है जो वे लाती हैं। ऐसी चीज़ें जो आज के बाजारीकृत समाज में भी अपना देसीपन बनाए हुये हैं। हाँ, गंवई स्वाद से लबरेज खालिस देसी।

इस बार माँ एक शादी में गयी थीं। अब गाँव की शादी का अपना ही मज़ा होता है जो शादी होने के बाद भी कई दिनों तक बना रहता है, "सभी के लिए"। शहरों की तरह नहीं कि घर के अंदर शादी हो रही है और बाहर टेंट-बल्ली उखड़नी शुरू। खैर, माँ शादी के घर से वापस आई तो हम सब के लिए उस शादी का स्वाद साथ में लायी थी। देशी लड्डू। वैसे तो लड्डू देशी ही होता है, लेकिन वो लड्डू शहरों के ब्रांडेड लड्डुओं से स्वाद और साइज़ में उनसे कहीं बेहतर होता है। सिर्फ लड्डू ही नहीं उसके साथ बुनवा, गुल्लईया, खाझा और गट्टा(शचीन्द्र इसे कुछ और कहता है) भी था। इनमे से कई चीजों का तो नाम ही नहीं जानते होंगे शहरों में। लड्डू, खाझा और गट्टा तो शादी के बाद आस-पड़ोस और सगे-संबंधियों को बैने के रूप में बंटने वाले बुलावे के तौर पर आते हैं, घर में आयी नयी बहू की मुँह दिखाई का आमंत्रण। वैसे ऐसे ही एक आमंत्रण का इंतज़ार मैं भी कर रहा हूँ बीते 08 मार्च से, लेकिन अभी तक नहीं मिला। शायद यहाँ शहरों में नहीं होता ऐसा कुछ।

खैर, माँ अपने साथ सिर्फ गाँव की मिठास ही नहीं लायी थी उसके साथ आया था वहाँ का अचार, कोंहड़ौरी और पता नहीं क्या-क्या। गाँव की बातें करने के साथ-साथ एक-एक पिटारा खुलता है जिसमे से गाँव टुकड़ो में बाहर आता है। आज की इस भागदौड़ के बीच गाँव जाना एक बोझिल यात्रा की तरह लगता है, सबको तो नहीं अधिकांश को। उनके लिए गाँव जाने का मतलब गाँव जाने की औपचारिकता भर निभाने से ज्यादा कुछ नहीं होता। ऐसे लोगों को गाँव जाना एक जंजाल लगता है जिसमे उलझने से वे बचते हैं, लेकिन मेरी माँ को वहाँ से वापस आना जंजाल लगता है। शायद इसीलिए वहाँ से वापस आने पर उनकी पहली प्रतिक्रिया होती है "आ गयी जी के जंजाल में"।

दरअसल हम अपनी ज़िंदगी की उठापटक में इतने खो गए हैं कि और चीजों के लिए फुर्सत ही नहीं और अगर समय मिल भी गया तो उसे पत्थर की लाल-काली दीवारों और हौजखास या चौकीधानी जैसे सो कॉल्ड गाँव देखने में बिताना ज्यादा पसंद करते हैं बजाए अपने ठेठ देसी गाँव जाने के। शायद इसलिए क्योंकि वहाँ उन नकली गावों जैसी विलासिता और बनावटीपन नहीं होता जो हमारी ज़िंदगी का एक हिस्सा बनता जा रहा है। फिर हम ही अपनी चारदीवारी में बैठे-बैठे दुख जताते हैं कि धीरे-धीरे गाँव खत्म होते जा रहे हैं। लेकिन हम गलत हैं गाँव कभी न खत्म होने वाली एक संरचना है जिनका अपना महत्व है। हाँ उनके स्वरूप में परिवर्तन हो सकता है लेकिन इससे उनकी ठेठता खत्म नहीं होगी जो उन्हे गाँव बनती है। वो गाँव ही रहेंगे और गाहे-बगाहे वहाँ से आने वाले लोगों के जरिये ही सही, हम तक पहुँचते रहेंगे, हमारे पत्थरों से बने मकानों और पत्थर हो चुके दिलों पर दस्तक देने।

शुक्रवार, 1 मई 2015

बस एक कहानी

भाग-3
दिन, हफ्ते, महीने बीतते गए लेकिन वो नहीं मानी। इधर मेरा दोस्त रोज़ मेरी रिपोर्ट लेता, क्या हुआ आज? क्या बात हुयी? मानी की नहीं? और मैं भी सब कुछ सिलसिलेवार बता देता। इन सबके बीच कॉलेज और पढ़ाई का भी नुकसान होने लगा। अक्सर कॉलेज ना जाने का मूड होने लगा। मेरा दोस्त समझाता मुझे, लेकिन मैं कभी नहीं समझा। कभी-कभी तो वो भी झल्ला जाता था नहीं मान रही तो छोड़ ना, क्यों पीछे पड़ा है। लेकिन तब मैं मानने को तैयार ना था। अपनी प्रेमकथा का टायर पंचर नहीं होने देता चाहता था इसलिए रोज़ हवा भरता था उसमे, ये सोचकर कि कभी तो दौड़ेगा। सोचा आखिर समस्या क्या है, स्टेटस का भी फर्क नहीं था, कास्ट की भी कोई प्रॉबलम नहीं थी और हाँ सबसे ज़रूरी बात, अगर हाँ नहीं कहा तो ना भी तो नहीं कहा है अभी तक। बस इसी आस में मैं लगा रहा अपने मिशन पर। कभी उसके पीछे-पीछे उसके कोचिंग तक जाता तो कभी छुट्टी होने पर उसके स्कूल के बाहर खड़ा रहता बाइक पर लिफ्ट देने के लिए, वो अलग बात थी की उसने कभी ली नहीं। मतलब वो सारे काम किए जो आजकल के लड़के भी कर रहे हैं। लेकिन नीयत शायद उनसे कहीं ज्यादा साफ थी।

इन सबके बीच उसका जन्मदिन भी आया। दोनों का बुलावा था मेरा भी और मेरे दोस्त का भी। लेकिन एक समस्या थी कि बुलावा बहुत शॉर्ट नोटिस पर मिला था, कॉलेज से घर लौटते ही। ऐसे में कोई गिफ्ट भी नहीं था तो कैसे जाते खाली हाथ। बस फिर क्या बाइक उठाई और दौड़ लगा दी गिफ्ट के लिए। बहुत ढूँढने के बाद एक गिफ्ट मिला, पर्फ्यूम के साथ एक ग्रीटिंग कार्ड। कोई आम कार्ड नहीं था वो, उसके अंदर थे '100 रीज़न्स व्हाय आई लव यू'। मैं थोड़ा हिचका लेने में लेकिन दोस्त के कहने पर ले लिया और जिस रफ्तार से गए थे उसी रफ्तार के साथ वापस भी आए। हम उसके घर पहुंचे तब तक केक कट चुका था, यानि हम थोड़ा लेट थे। लेकिन मुझे कोई मतलब नहीं था केक से। मुझे जिससे मतलब था वो बला की खूबसूरत लग रही थी आज। मैं धीरे से उसकी तरफ गया और सबसे छुपाते हुये उसे गिफ्ट दिया इस हिदायत के साथ की अकेले में देखना इसे। वो शायद इस बारे में अपनी चचेरी बहन को बता चुकी थी जो हम दोनों को देखकर मुस्कुरा रही थी। खैर उस दिन सब अच्छा रहा। मैं खुश था बहुत। एक-दो दिन बाद ही उसने मुझसे एक डायरी मांगी। पूछने पर बस यही बोली, देनी हो तो दे दो वरना रहने दो। मैं कैसे मना करता सो दे दी। काफी उत्साहित था कि क्यों मांगी है डायरी, क्या करना है। अगले ही दिन वो डायरी उसने वापस मेरे पास भिजवा दी। जैसे ही उस डायरी को खोलकर देखा तो उछल पड़ा। अरे वाह! ये क्या है। उसने वही कार्ड वाले 100 रीज़नस उस डायरी में लिखे थे। मुझे लगा बात बन गयी मेरी, लेकिन नहीं ऐसा नहीं था। जैसे ही आखिरी पेज देखा तो सारी खुशी काफ़ूर हो गयी। उसने उस डायरी में अपनी जगह किसी और का नाम लिखा था। किसका, बताने की कोई वजह नहीं दिख रही। खुशी के माहौल में मायूसी छा गयी। मैंने तुरंत फोन किया और नाराजगी जाहिर की तो उसने हँसते हुये फोन काट दिया। मुझे उसके उस दिन हँसने का कारण आज तक समझ नहीं आया।

खैर, उस बात पर मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया सिवाए इतने के कि उस डायरी के वो पन्ने आज भी सहेज रखे हैं मैंने। लेकिन कभी पलट कर नहीं देखता उन्हे। अच्छा नहीं लगता देखकर।

उस दौरान आये ख़ुशी के हर मौके को मैं उसके साथ जोड़कर देखने लगा। चाहे कोई त्यौहार हो या नया साल। वैसे ऐसा मैंने पहले कभी नहीं किया था लेकिन इस बार 31 दिसंबर की रात खास रही मेरे लिए। क्योंकि मैंने 01 जनवरी के दिन की शुरुआत उसके साथ की थी। बहाना था नया साल शुरू हुआ है तो बड़ों का आशीर्वाद लेना चाहिए, अपने घर के भी और उसके घर के भी। जैसे ही घड़ी ने रात के 12 बजाए, मैं पहुँच गया उसके घर बिना कुछ सोचे-समझे, एक बार फिर सबसे मिलने के बहाने उससे मिलने। उसने पूछा डर नहीं लगता आपको मेरे घर आने में? मैं जवाब में थोड़ा मुस्कुरा गया, वो शायद समझ गयी थी मेरी मुस्कुराहट को इसलिए दोबारा कुछ नहीं पूछा, बस अपने घर पर लगे गुलाब में से एक तोड़कर दे दिया मुझे।
इस बार सवाल करने की बारी मेरी थी तो पूछ लिया- 'क्या मतलब निकालूँ इसका मैं?'
लेकिन इस बार शायद जवाब में मुस्कुराने की बारी उसकी थी तो बिना जवाब दिये बस मुस्कुरा दी।
और उस गुलाब की तरह मेरा सवाल आज भी सवाल बनकर पड़ा है कहीं कागज़ों के बीच, कि क्या मतलब था उसका? लेकिन अब जवाब नही चाहता। उन दोनों को पड़े रहने देना चाहता हूँ वहीं, उन्हीं कागज़ों में, कई परतों के नीचे।

उस साल की होली भी बहुत अलग ढंग से मनाई। वैसे मैं होली खेलता नहीं लेकिन उस होली पर खूब हुड़दंग मचाया अपने दोस्तों के साथ। भांग भी चढ़ गयी थी थोड़ी सी। उसी सुरूर में चला गया उसके घर। बड़ों का आशीर्वाद लिया उसके भाइयों को रंग लगाया, लेकिन जैसे ही उसे रंग लगाने को बढ़ा वो भाग गयी। मैंने भी उसके पीछे-पीछे छत तक पहुँच गया जहां वो एक कोने में सिमटी सी खड़ी थी। बहुत ना-नुकुर करने के बाद धीरे से उसके गालों पर गुलाल लगा दिया। लेकिन हाँ, भंग के नशे में भी इतना होश था मुझे कि किसी तरह की असभ्यता किए बिना वापस आ गया।  सब कुछ कितना अच्छा था उन दिनों में।

समय बीतने के साथ-साथ मेरे लिए इस बात की गंभीरता बढ़ती गयी, लेकिन वो नहीं मानी। इधर फ़र्स्ट इयर के एग्जाम भी आ गए। एक ही पेपर हुआ था, पता लगा कि वो सब गाँव जा रहे हैं एक महीने के लिए। बस मेरे मूड के साथ पेपर भी खराब हो गए, हालात ये कि बस फ़ेल नहीं हुआ। होना ही था ऐसा, क्योंकि जिस समय मुझे पढ़ाई करनी चाहिए थे उस समय मैं उसके लिए लेटर लिख रहा था। उसे भेजने से पहले अपने दोस्त को बताया तो उसने कहा ये लेटर नहीं खुला दिल है तेरा, जिसमे सब कुछ दिखता है। ये पढ़ के तो भाभी को मान ही जाना चाहिए, वो हर दूसरे दिन किसी न किसी बात पर बोल ही देता था 'अब तो भाभी को मान ही जाना चाहिए'। खैर, दोस्त के आश्वासन पर भेज दिया उसकी चचेरी बहन के हाथों जो गाँव जा रही थी और तब तक हमारे बारे में सब कुछ जान चुकी थी। इसी तरह कुछ-कुछ ऊटपटाँग सा करते हुये जैसे-तैसे एक महीना बीता और वो वापस आ गयी। मैं मानो फिर से ज़िंदा हो गया। फिर रोज़ की वही बातें, वही मनाना, वही इमोशनल अत्याचार । और फिर उन दिनों तो उसके स्कूल और मेरे कॉलेज की भी छुट्टियाँ हो गयी थी तो सारे दिन का यही काम। कभी फोन पर कभी घर जाकर। ठीक ही चल रहा था सब कुछ। लेकिन ज्यादा दिन नहीं।

पता नहीं क्या हुआ था उस दिन और क्यों। मेरे फोन करने पर थोड़ी देर बाद बात करने को कह कर रख दिया। कुछ देर बाद दोबारा फोन किया और अपना वही पुराना बाजा बजाने लगा जिसका राग शायद उस दिन उसे अच्छा नहीं लगा या शायद और कोई बात थी। जो भी रहा हो बहुत उदास लगी वो उस दिन मुझे। उसी उदासी में बात करते-करते अचानक झल्ला उठी...
क्या है!!!
क्यों परेशान कर रखा है इतने दिनों से?
मानते क्यों नहीं हो?
मैं इतनी परेशान हो गयी हूँ तुमसे कि इससे तो अच्छा है कि जाओ, मर जाओ जाके कहीं, पीछा छूटे मेरा।
और फोन पटक दिया। मैं बुत बन गया। कुछ समझ नहीं आया कि क्या, क्यों, और कैसे हुआ। संभालने में थोड़ा समय लग गया। उस दिन लगा कि सच में मर जाऊँ लेकिन इतनी हिम्मत नहीं थी। खूब रोया उस दिन। फिर बाइक उठाई और पहुँच गया अपने उसी दोस्त के घर। वो भी मेरी शक्ल देख कर समझ गया कि कुछ हुआ है। पूछने पर सब बताया मैंने लेकिन वो फिर भी बोला अरे क्या हुआ, मूड खराब होगा भाभी का, इसलिए निकल गया होगा मुंह से। उसने जबर्दस्ती मुझसे नंबर लेकर बात की उससे, और मुझसे भी करवानी चाहिए लेकिन मैंने नहीं की। उस दिन शायद मैंने भी ठान लिया था कि अगर वो चाहती है तो मैं मर गया उसके लिए आज से ही। फिर कभी आवाज़ नहीं सुनेगी वो मेरी। उसके बाद उसने कई बार कोशिश कि मुझसे बात करने की, बुलावा भी भिजवाया मिलने के लिए लेकिन बहुत देर हो गयी थी तब तक। शायद मैं सच में मर चुका था उसके लिए। और इस तरह वो हमेशा के लिए मेरे दोस्त की 'कभी ना होने वाली भाभी'  बन कर रह गयी और मेरे सारे सवाल, सवाल बनकर।

ये क्या था, क्यों था पता नहीं लेकिन जो भी था अच्छा था। आज हम दोनों खुश हैं अपनी-अपनी जगह। उसका पता नहीं लेकिन मैं हूँ। इसका मतलब ये नहीं कि वो सब बेकार था मेरे लिए लेकिन ज़िंदगी कभी रुकती नहीं। मेरी भी नहीं रुकी, ना ज़िंदगी और ना खुशी। और वो सब आज एक कहानी से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

बस एक कहानी

भाग-2
एक दिन मेरा वो अतिउत्साही दोस्त पीछे ही पड़ गया कि आज तो तुझे बोलनी ही पड़ेगी उससे अपनी बात। वैसे वो पहले भी कई बार कह चुका था ऐसा करने को लेकिन आज शायद ठान के ही आया था। बहुत मना किया मैंने लेकिन वो नहीं माना तो मुझे मानना पड़ा। डिसाइड हुआ कब और कैसे बोलना है, दोपहर में कॉलेज जाते हुये किसी एसटीडी बूथ से, तब तक वो भी आ जाती है स्कूल से। सो प्लान के मुताबिक गए एक फोन बूथ पर, आज भी नाम याद है उसका लेकिन बताना ज़रूरी नहीं।
फोन करना है लोकल, केबिन से।
बूथ वाला भी होशियार था, बोला केबिन का पैसा अलग लगेगा। शायद समझ गया था हमारी मंशा या शायद उस समय केबिन का प्रयोग इसी लिए किया जाता होगा। जो भी था हमने भी बोल दिया ठीक है। बस फिर मैं केबिन के अंदर और मेरा दोस्त बाहर। फोन मिलाया, घंटी बजी फोन की भी और दिल की भी। इत्तेफाक से फोन उसी ने उठाया। 
हैलो.....हैलो.....कौन.....हैलो...
डर के मारे आवाज़ गले में ही रह गयी और फोन रख दिया। बिना कुछ बोले बिना कुछ कहे। लेकिन बाहर भी नही जा सकता था, खड़ा था ना मेरा अंकल मेरा दोस्त केबिन से कान सटाए। मुझे फोन रखता देख बाहर से ही इशारा किया दोबारा मिलने का। उधर बूथ वाला हमें देखे जा रहा था कि कर क्या रहे हैं ये लड़के। लेकिन उसे क्या मतलब था उसका तो फायेदा हो रहा था लोकल कॉल के लिए एसटीडी के पैसे मिलने थे उसे तो। मैंने दोबारा फोन मिलाया, इस बार फिर वही थी दूसरी तरफ।
हैलो....।
मैं भी धीरे से बोला...ह....हैलो...मैं।
कौन...???
मैंने अपना नाम बताया।
हाँ बोलो...क्या हुआ?
मैं क्या बोलता लेकिन बात तो करनी ही थी आज तो पहले पूछ लिया, एक बात कहनी थी आप बुरा ना माने तो।
हाँ बोलो क्या बात है। मैं बुरा क्यों मानूँगी।
मैंने अपने को थोड़ा संभाला और बिना कोई और बात किया बोल दिया.....आइ लव यू!!!
इतना बोलते ही फोन कट गया, मेरी तरफ से नहीं उसकी तरफ से। मेरी तो हालत खराब हो गयी, काही गुस्सा तो नहीं हो गयी? किसी को बता न दे। पता नहीं क्या-क्या बातें घूमने लगीं दिमाग में। केबिन से बाहर आया तो दोस्त ने पूछा क्या हुआ? क्या बोली वो? तूने बोल दिया? मैंने भी डरते-डरते बता दिया सब, हाँ यार बता तो दिया लेकिन फोन काट दिया उसने तो।
वो बोला फिर मिला एक बार, देख क्या बोलती है। मैंने मना किया लेकिन वो नहीं माना और मिलवा दिया फोन। इस बार वो शायद इंतज़ार कर रही थी मेरे फोन का, घंटी बजते ही उठा लिया।
मैंने पूछा, क्या हुआ, फोन क्यों काट दिया?
वो भी शायद डरते हुये ही लेकिन थोड़ा गुस्से में बोली-आपको नहीं पता क्या हुआ? क्या किया है आपने?
मैंने कहा-क्या किया, जो सच है वही तो बोला।
अब शायद मैं ज्यादा विश्वास के साथ बोल पा रहा था।
उसने कहा-कुछ सच नहीं है? क्या होगा इससे? घरवालों को पता चल गया तो पता है क्या करेंगे वो लोग?
मैंने कहा-क्यों पता चलेगा? कौन बताएगा? आप? और पता चल भी गया तो क्या हुआ, गलत क्या कहा है मैंने?
उसने शायद उसी समय भविष्य देख लिया था। मुझे समझते हुये बोली, इन सब बातों का कोई मतलब नहीं है, कोई फ्युचर नहीं होगा इसका। अट्रैक्शन है बस और कुछ नहीं। मैंने कहा आपके लिए अट्रैक्शन होगा मेरे लिए नहीं। बस इस तरह वो अपनी बात पर अड़ी रही और मैं अपनी। अंत में मैंने ही सीधे पूछ लिया सबको भूल जाओ और बोलो हाँ या ना। इतना सुनते ही उसने फोन काट दिया। उस समय तो नहीं लेकिन आज सोचता हूँ इतना आसान नहीं था उसके लिए जवाब दे देना। लेकिन लगता है दो गलतियाँ हो गयी थी उस दिन, एक मैंने बहुत जल्दी कर दी थी पूछने में और दूसरी, उसने बहुत देर कर दी थी जवाब देने में।

उस दिन थोड़ा उदास हो कर कॉलेज गया और शाम को उतना ही डरते हुये हम दोनों घर लौटे। डर ये कि कहीं उसने बता ना दिया हो अपने घर पे किसी को और हमारी खबर ले ली जाए। डांट या मार की चिंता नहीं थी बस एक ही चिंता थी कि अभी तक की बनी-बनाई इज्ज़त खत्म हो जाएगी। रास्ते भर अपने दोस्त को कोसते हुये आया, कि क्या करवा दिया तूने आज। लेकिन घर तो आना ही था। वापस उसके घर के सामने से लौटे तो देखा वो खड़ी थी अपने छज्जे पर। धीरे से आँख उठा कर ऊपर देखा तो वो थोड़ा सा मुस्कुरा दी। उसे मुसकुराते देख थोड़ा सुकून मिला दिल को कि स्थिति नियंत्रण में है। उसके बाद से मेरे रोज़ के कामों में उस समय का शायद सबसे ज़रूरी एक काम ये भी शामिल हो गया था, उसे फोन करना और मानना अपने लिए। प्यार से, कभी थोड़ा गुस्से से कि अब कभी बात नहीं करूंगा आपसे। लेकिन उसे भी पता था मेरा ये झूठ, कभी बात ना करने वाला।