रविवार, 25 सितंबर 2011

औरत : व्यथा कथा

बालिका दिवस के उपलक्ष्य में.....
बात शुरू करता हूँ एक घटना से | मैं अपने एक घनिष्ठ मित्र के घर उसके बुलावे पर रात्रि भोज में शामिल होने गया | पहले उसका थोडा परिचय दिए देता हूँ---पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक मध्यवर्गीय दर्जे के ब्राह्मण परिवार में सबसे ज्यादा शिक्षा प्राप्त व्यक्ति | इससे ज्यादा कुछ बताने की शायद ज़रुरत नहीं कि मेरे कुछेक मित्र उसे भारत की उस १ प्रतिशत विशिष्ट जनता में शामिल करते हैं जो उच्चा शिक्षा प्राप्त है | हुआ यों कि भाईसाहब कि शादी को हुए लगभग दो-ढाई साल बीत चुके थे | किसी कारणवश में उनकी शादी में न जा पाया और कुछ व्यस्तताओं के चलते उनसे मुलाकात भी न हो पाई | लेकिन जब उन्होंने बुलाया तो सोचा कि इसी बहाने चलकर उन्हें और भाभी जी को शादी कि बधाई भी दे दूंगा | इसी मंशा को लिए मैं उनके घर गया | कार्यक्रम यह था कि रात का भोजन मैं उनके परिवार के साथ करूँ | कार्यक्रमानुसार हम सब (मैं, मेरा मित्र, चाची जी, छोटी बहिन गुड्डी, छोटा भाई ) भोजन के लिए एक साथ बैठे | लेकिन भाभी जी हमारे साथ नहीं बैठीं...शायद कोई काम रहा होगा(?), परन्तु मेरे आग्रह करने पर उन्होंने भी हमे ज्वाइन किया | भोजन शुरू हुआ, सभी लोग सामान्य तरीके से भोजन कर रहे थे, लेकिन अचानक खाने कि मेज पर हलचल बढ़ी और भाभी जी अपनी साड़ी से अपने सिर को ढंकते हुए एक किनारे खड़ी हो गयीं लेकिन घर के बाकी सदस्य भोजन कर रहे थे, मैं कुछ समझ नहीं पाया | लेकिन तुरंत ही पता चला कि चाचा जी यानी भाभी जी के श्वसुर जी कमरे में आ रहे थे | वे आये, करीब १० मिनट तक कमरे में रहे, तब तक हम सभी अपना भोजन ख़त्म कर चुके थे | लेकिन भाभी जी जस की तस खड़ी रहीं | हमारे साथ खाना खाना तो दूर वे बैठीं भी नहीं | चाचा जी के जाने के बाद मैंने पूछा कि आप खड़ी क्यों हो गयीं, आपका खाना भी ठंडा हो गया | जवाब आया...पापा जी आ गए थे ! मैंने पूछा तो...? लेकिन मेरे ये पूछते ही कमरे में शांति छा गयी और भाभी जी चुपचाप अपनी जगह पर बैठ कर अपने लगभग सूख चुके खाने को पता नहीं किस मन से खाने लगीं | यह सब कुछ देख कर मुझे ऐसा दृश्यात्मक आघात लगा कि मैं बता नहीं सकता | मुझे उस परिवार पर और सबसे ज्यादा अपने मित्र पर गुस्सा आया | लेकिन शायद वह भी इसलिए चुप रहा क्योंकि उसे पता था कि मेरे जाने के बाद उसके बोलने कि प्रतिक्रिया का दंश उसकी पत्नी को ही झेलना पड़ेगा |

हांलांकि यह परिवार पिछले तीस-पैंतीस सालों से दिल्ली जैसे एक महानगर में रह रहा है, जिससे उसका रहन-सहन तो आधुनिक हो गया लेकिन विचार शायद अभी भी दादा-परदादा के ज़माने के ही हैं जिसे वे लोग संस्कारों का नाम देकर अपने घर की बहू पर थोपते हैं | उस परिवार को देखकर मैं सोचने लगा कि हम बात तो करते हैं संयुक्त परिवार की, उसकी खुशहाली की---लेकिन जब एक परिवार खाने की मेज पर संयुक्त नहीं हो पाता तो और मामलों में वह संयुक्त कैसे रहता होगा या हमारी उस संयुक्त परिवार की अवधारणा में बहू नाम की वास्तु के लिए कोई स्थान नहीं है |

हमारे समाज में औरत का सर्वप्रथम और सर्वोपरि गुण माना गया--कम बोलना, मीठा बोलना, और जहाँ तक संभव हो न बोलना | मध्यवर्गीय भारतीय परिवार में एक लड़की की कंडिशनिंग इस प्रकार की जाती है की वह शादी के बाद एक लम्बा समय दबावों को झेलने और नए परिवार के नए सदस्यों के अनुरूप अपने को ढालने में बिता देती है | इसे यह पहचानने में ही कई साल लग जाते हैं की उसका अपना भी कोई अस्तित्व है | अपनी पिछली पहचान को भूलते हुए वह अपने को आदर्श सिद्ध करने में ही अपनी पूरी ताकत झोंक देती है | यही कारण है कि वह कभी इस दुष्चक्र से बहार निकल कर अपना सम्मान व अपना अस्तित्व नहीं बचा पाती | एक पढ़ी-लिखी हिन्दुस्तानी औरत कि त्रासदी यह है कि अपनी निजी ज़िन्दगी का एक सुनहरा हिस्सा वे अपना घर को सुचारू रूप से चलाने में, पति की रूचि और पसंद के अनुसार अपने को ढालने में और अपने बच्चों की पढाई और उनके भविष्य की चिंता में होम कर देती हैं | चालीस-पैंतालीस की उम्र के बाद अचानक पाती है कि वह एक फालतू सामान की तरह घर में पड़ी है, बच्चों को माँ की ज़रुरत नहीं और पति के लिए वह एक आदत बन चुकी है | वास्तव में देखा जाये तो माँ, दादी, या नानी के रूप में उसकी 'चुप्पी' ने ही हर औरत को कभी न कभी कहीं न कहीं इस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जिसमे अचानक अपने घरेलु सिंहासन के आकस्मिक हस्तांतरण से बौखलाकर वह अपने अस्तित्व की सार्थकता की तलाश में छटपटाती है |

लेकिन वह करे भी क्या, "हमारे इस मनुवादी समाज ने लाज-शर्म, मान-मर्यादा, इज्ज़त-आबरू रखने की पूरी ज़िम्मेदारी एक औरत के खाते में ही डाली है | हमारी इस संस्कृति ने औरत को इंसान का दर्जा दिया ही कब था? वह तो देवी है ! श्रद्धा की मूर्ती है ! पूजनीय है ! वन्दनीय है ! और देवियाँ बोला नहीं करती वे तो पूजा के पंडाल में ही सजी-धजी, मूक-बधिर अच्छी लगती हैं |"

बेटी के पैदा होने और उसे लाड़-प्यार से बड़ा करने के बाद हर माँ-बाप का एकमात्र सपना होता है कि उसे सुंदर-सुशील और गुणी राजकुमार मिले | वह लड़की भी अपनी आँखों में ढेर सारे सपने संजोय, अपने सपनो के राजकुमार के साथ शादी करती है | शादी के बाद हर लड़की को नए घर, नए माहौल, नए लोगों, नए तौर-तरीकों के साथ अडजस्ट करना पड़ता है | स्वयं को इस नए माहौल में अडजस्ट करने के लिए उसे अपने भीतर कितना मरना पड़ता है --यह घर के लोग तो क्या उसका अपना 'राजकुमार' भी नहीं समझ पाता जिसके लिए वह सारी जहमत हँसते-हँसते उठती है | विडम्बना तो यह है कि भारतीय संयुक्त परिवार में  गृहिणी बेटे की शादी करते ही बहू को घुसपैठिये के रूप में देखती है जिसके हाथ में उसने तेईस-चौबीस साल का पला-पलाया बेटा सौंप दिया | ऊपर से तो वह गाजे-बाजे के साथ उसका स्वागत करती है लेकिन मन में बेटे पर एकाधिपत्य छिनते देख उसकी त्योंरियां चढ़ने लगती हैं | छोटी से छोटी बात पर भी उस नयी स्वामिनी को ज़लील करने का मौका हाथ से नहीं जाने देती | एक ही घर में एक ही उम्र कि दो लड़कियां होती हैं--एक अनब्याही बेटी और दूसरी ब्याहकर लायी गयी बहू | लेकिन दोनों के लिए अलग-अलग संबोधन, व्यवहार के लिए अलग-अलग मापदंड हैं | बेटी कैसे भी रहे, कुछ भी करे कोई ध्यान नहीं देता लेकिन बहू कैसे रहेगी , क्या करेगी, क्या पहनेगी, क्या बोलेगी, किससे बोलेगी, कहाँ आएगी-जाएगी, क्या खाएगी, कब खाएगी, किसके सामने खाएगी, यह निर्धारण न तो बहू स्वयं करती है और न ही उसका पति | यह सब कुछ तय करने वाले दो ही लोग होते हैं, एक सास और दूसरी अगर है तो ननद | मज़े की बात तो यह है कि कभी-कभी बहू का अपने ससुराल में खुश रहना इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसकी सास कि बेटी यानी उसकी ननद अपने ससुराल में खुश है या नहीं |

होना तो यह चाहिए था कि वह अपनी बहू को इतना प्यार, सुरक्षा और अपनापन देती जो उसे कभी मिला न हो | लेकिन वास्तव में होता है इसके एकदम विपरीत | वह ज़िन्दगी भर औरत बनी रहती है लेकिन सास बनते ही वह अपना औरत होना भूल जाती है | "जिन्हें अपना औरत होना याद रहता है वे अपनी बहू या किसी अन्य औरत के प्रति कभी अतार्किक नही होती |" वह औरत जो आज सास है, कभी बहू थी, पर सास के ओहदे पर पहुँचते ही वह अपनी युवाकाल की प्रताड़नाओं को भूल कर स्वयं ही हुक्मरां बन जाती है | वह प्रतिशोध जो वह अपनी सास-श्वसुर या ननद आदि से नहीं ले पाती वह अपनी बहू को यातना देने के बहाने निकलता है | घर में हुई किसी भी होनी-अनहोनी के लिए जिम्मेदार मानकर घर में आई एक नयी लड़की के साथ ऐसा ज़ालिमाना सलूक करती है जिसे देखकर यही कहा जा सकता है कि औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है |

कई बार यह कहा जाता है की किसी भी लड़की के लिए अपनी आज़ादी और इज्ज़त कमाने की पहली शर्त है---"आर्थिक आत्मनिर्भरता |" हर समाज में अर्थसत्ता ही वर्चस्व का निर्धारण करती है | आर्थिक आत्मनिर्भरता से बहुत सारे समीकरण बदल जाते हैं | परन्तु वास्तविकता यह है की एक विवाहित औरत आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने पर भी घर और बाहर दोनों पाटों के बीच पिसती रहती है | एक संयुक्त परिवार में कामकाजी औरत के लिए घरेलू मोर्चे पर कोई रियायत नहीं है | पति-पत्नी दोनों काम से साथ लौटेंगे तो पति अखबार लेकर या टी.वी. खोलकर आराम से बैठ सकता है लेकिन शाम की चाय तो पत्नी को ही बनानी पड़ेगी | तुर्रा यह की चाय बनाकर उस्सने कोई एहसान नहीं किया है केवल अपना कर्तव्य (?) निभाया है | अर्थसत्ता या मनीपावर से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन वही अर्थ जब पुरुष कमाकर लता है तो गृहस्वामी है, घर का सर्वेसर्वा है, आदर का पत्र है | उसके घर में घुसते ही पत्नी, माँ या बहन को पंखे का स्विच ऑन कर देना चाहिए, चाय का कप या शरबत का गिलास लेकर खड़े हो जाना चाहिए , लेकिन......वही अर्थ जब औरत कमाकर लाती है तो कितने घरों में उसके ससुराल वाले पलक-पांवड़े बिछाये खड़े मिलते हैं |

आत्मनिर्भर होना या घर की आर्थिक स्थिति को मज़बूत बनाने में सहायक होना उसे आत्मसम्मान से जीना सिखाता है परन्तु ससुराल में आमतौर पर इसे उसके गुमान के साथ जोड़कर देखा जाता है और 'चार पैसे घर क्या लाती है दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा रहता है' जैसे वाक्यों के तमगे यदा-कदा उसकी पोशाक पर टांकते रहते हैं | इन चार पैसों की बदौलत उसके साथ कोई रियायत नहीं बरती जाती | दिन की रसोई सास या घर पर बेकार बैठी ननद भले ही संभाल ले परन्तु रात का चूल्हा-चौका उसे नौकरी से लौटकर संभालना पड़ता है | इसे करते हुए वह चेहरे पर शिकन नहीं ला सकती वरना कहा जायेगा----"महारानी के नखरे तो देखो |" कुल मिलकर आत्मनिर्भरता औरत का पद बदल सकती है लेकिन उसके लिए बनाये जाने वाले कर्तव्यों (?) को नहीं | अर्थात वह बंधुआ मजदूर से कमानेवाली नौकरानी बन जाती है |

वास्तव में भारतीय समाज के मध्यवर्गीय ढांचे में हमने औरत को आधुनिक और आत्मनिर्भर तो बनाया, पर उसे वह माहौल देने में असमर्थ रहे, जहाँ यह आत्मनिर्भरता उसे बराबर का सम्मान दिला पाती | आज भी मध्यवर्गीय मानसिकता के पास इन समस्याओं का एक ही हल है---लड़की को इतना मत पढ़ाओ कि वह सवाल करने लगे या ससुराल में अपनी बेकद्री और अपमान को पहचानने लगे | अफ़सोस तो यह है कि ऐसी सोच रखने वाले कुछ लोग मेरे उस मित्र की १ प्रतिशत विशिष्टवर्गीय जनता में भी हैं जो उच्चा शिक्षा प्राप्त हैं |