सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

शिक्षा बनाम व्यवस्था

एक छोटी सी मासूम से लड़की, महज 6-7 साल की...छोटे से तसले में पानी भर कर अपने नन्हें-नन्हें हाथों से कपड़े धोती हुयी, वो भी तब जब उसकी उम्र के और बच्चे उसके सामने पढ़ रहे हैं, खेल रहे हैं, उछल-कूद रहे हैं। लेकिन वो बेचारी ललचाई नज़रों से उनकी तरफ देखती है और चेहरे पर झूठी मुस्कान लेकर अपने काम में लग जाती है। कुछ ऐसा ही दृश्य मेरी आँखों के सामने पड़ा एक विद्यालय में, जहां आजकल मैं पढ़ाने(?) जाता हूँ। विद्यालय में निर्माण कार्य चल रहा है, जिसमे बहुत से मजदूर लगे हुये है। वो लड़की उन्हीं मजदूरों में से किसी की बिटिया है। हालांकि मेरा उस बच्ची से व्यक्तिगत रूप से कोई संबंध नहीं है, लेकिन पता नहीं क्यों उसे देखते ही ऐसा लगा कि मैं कहीं ना कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उससे जुड़ा हुआ हूँ। मानो वो मुझसे कह रही हो कि मैं भी इन बच्चों की तरह खेलना चाहती हूँ, इनकी ही तरह स्कूल जाना चाहती हूँ।

ये शायद हमारे देश की विडम्बना है कि जो मजदूर अपना खून पसीना बहाकर एक विद्यालय की इमारत खड़ी करते हैं, जिससे कि बच्चों को अच्छी शिक्षा सुलभ हो सके, उन्ही मजदूरों के बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं| एक तरफ हमारे देश के कर्ता-धर्ता(?) एयरकंडीशंड कमरों में बैठ कर एक क़ानून बनाते हैं कि 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाएगी, जिससे कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित रह जाये| वहीँ दूसरी तरफ उन्ही के द्वारा संचालित विद्यालयों की इमारतें बनाने वाले मजदूरों के छोटे-छोटे बच्चे शिक्षा जैसी आधारभूत सुविधा से वंचित रह जाते हैं| इसे क्या समझा जाये, उस सरकार की नाकामी या उन बच्चों का दुर्भाग्य जो एक मजदूर के घर पैदा हुए| या सरकार के नियम-कानून केवल उन्ही बच्चों पर लागू होते हैं जो अच्छे घर में पैदा हों| वैसे देखा जाये तो सरकार के इस कानून से शिक्षा के हालात में ज्यादा फर्क नहीं आया है बस उसकी हालतबद से बदतर’ हो गयी है|

इस नियम का पालन करने के लिए बच्चों को थोक के भाव में स्कूलों में दाखिला दिया जाता है, भले ही उनके बैठने कि व्यवस्था हो या ना हो, पीने को साफ़ पानी मिले या ना मिले, किताबें मिलें या ना मिलें, लेकिन.....चाहे जैसे हो बस पढ़ाओ| एक भी बच्चा स्कूल में दाखिले से वंचित ना रहे, स्कूल ना  हुआ जादू का पिटारा हुआ जिसमें जाते ही बच्चा महाज्ञान प्राप्त कर लेगा| कोई हमारे नीति-निर्धारकों से यह तो पूछे कि क्या उन्होंने जो नीतियाँ बनायीं हैं वे पूरी तरह से लागू हो भी पाती हैं या नहीं? जिन लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए ये नियम कानून बनाये जाते हैं क्या उन लक्ष्यों कि प्राप्ति होती हैदेखा जाये तो समस्या यह नहीं कि नीतियाँ बनीं बल्कि समस्या यह है कि उन्हें बनाया किसने| ऐसे लोग जो खुद वातानुकूलित कमरों में बैठते हैं, जिनके बच्चे बड़े-बड़े पब्लिक स्कूलों में महंगी शिक्षा प्राप्त करते हैं, जहाँ प्रत्येक बच्चे पर विशेष ध्यान दिया जाता है क्योंकि वहाँ एक कक्षा में मात्र 30 या 35 बच्चे बैठते हैं|

असल में इस कानून के छेद बच्चों की शिक्षा के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के मामले में केवल रोड़ा हैं बल्कि स्कूली शिक्षा के बाजारीकरण और निजीकरण के लिए नए दरवाजे भी खोलते
हैं| अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो शिक्षा खरीद-फरोख्त की वस्तु बनी रहेगी और शिक्षा में 'सामान अवसरों की गारंटी' एक दूर की कौड़ी साबित होगी|

देश में शिक्षा के मामले में 'स्कूल की उपलब्धतागुणवत्ता और सभी के लिए सामान अवसरों का होना' हमेशा से चिंता का विषय रहा है | देश की सामाजिक बनावट  आर्थिक श्रेणीबद्धता 'सभी के लिए एक जैसी शिक्षा' के सिद्धांत के सामने हमेशा यक्ष प्रश्न रही है और शिक्षा हमेशा स्तरीय खांचों में बँटी रही है| वर्गीय ढांचे के अनुरूप शिक्षा के भी कई ढांचे हैं, जो देश के सामाजिक संरचना में अन्तर्निहित मज़बूत वर्गीय विभाजन को अभिव्यक्त करते रहते हैं| अभिजात्यों के लिए उनकी हैसियत के मुताबिक महंगे और साधन संपन्न स्कूल तथा गरीबों मेहनतकशों के लिए सरकारी अर्धसरकारी स्कूल जिनकी गुणवत्ता लगातार हमले का शिकार रही है , कभी धन के अभाव में, तो कभी लचर ढांचों के कारण, तो कभी अकुशल, अनियमित और अल्प वेतन वाले अध्यापकों की अंधाधुंध भर्ती के जरिये| विडम्बना यह है कि देश की तीन चौथाई आबादी के लिए बने सरकारी स्कूलों की दुर्दशा 'शिक्षा के लोकव्यापीकरण' के अंतर्राष्ट्रीय नारे के नाम पर जारी है|

इन स्कूलों में बच्चों  अध्यापकों के अनुपात  की तो बात ही निराली है| ग्रामीण इलाकों में 100 बच्चों पर एक अध्यापक सभी विषय पढ़ते मिल जाया करते हैं| इन स्कूलों में लगभग 10 लाख अध्यापकों की कमी बनी हुई है| शिक्षाविद प्रोफ़ेसर कोठारी के शब्दों में,'अमीरों के लिए शिक्षा और गरीबों के लिए साक्षरता '-वर्तमान में शिक्षा के मौजूदा ढांचे के यही तार्किक परिणति है|