शायद यही कि हमें भी लेकर कहीं चले चलो |
कल रात एक फिल्म देखी | नाम नहीं पता लेकिन अच्छी थी---जातिवाद पर आधारित थी | उसमे एक दृश्य था जिसमें एक गाँव के दलित मिलकर अपने शोषण के विरुद्ध शांतिपूर्वक एक रैली निकलते हैं | लेकिन ये बात वहां के उच्चवर्गीय(?) लोगो को नागवार गुज़री | फिर क्या था अचानक वो शांति मार्च चीख-पुकार और भगदड़ में बदल गया | क्या हुआ, कैसे हुआ कुछ नहीं पता | लेकिन उसके बाद वहां केवल दो ही चीजें रह गयी थीं...दूर तक पसरा सन्नाटा और दूसरा दूर तक बिखरी चप्पलें....| दृश्य देख कर अचानक मन में एक विचार कौंधा की क्या उस सन्नाटे में कही कोई हलचल थी | ज़वाब मिला हाँ ज़रूर होगी...वो हलचल होगी उन चप्पलों के बीच | ये हलचल केवल उस सन्नाटे में ही नहीं होती बल्कि हर उस जगह पर होती है जहाँ इनका जमावड़ा लगता है..........
उस सन्नाटे में बिखरी चप्पलें शायद यही बातें कर रही होंगी कि कितने स्वार्थी लोग हैं अपने आराम के लिए हमे पहनते हैं और ज़रा सी विपदा आई तो सबसे पहले हमे ही छोड़ कर भागते हैं | लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जिसमें इन चप्पलों में दबी होंगी ना जाने कितने मासूमों की गूंजती चीखें, कितने अपनों के छूटते हाथ, कितने बिछड़े बच्चे |
वही दूसरी तरफ एक धर्मस्थल के बाहर इन चप्पलों से झलकती है लोगों की अगाध श्रद्धा वो भी कुछ पत्थरों में | इसे मैं अपने शब्दों में कहूं तो श्रद्धा का छद्म आवरण जिसका चोला लोग सिर्फ इन सो काल्ड धर्मस्थलों में ही ओढ़ते हैं | वैसे कमाल के होते हैं ये धर्मस्थल...चाहें तो किसी भी पत्थर को पूजनीय बना दें और हम भी कम कमाल के थोड़े ही हैं हम भी उस पूजनीय पत्थर की पूजा कर-कर के उसे अपने जीवन का कर्ता-धर्ता मान लेते हैं | क्यों भई अगर ऐसा ही है तो उन चप्पलों ने क्या गुनाह किया है जो उन्हें बाहर ही छोड़ देते हो | वो भी बेचारी सोचती होंगी कि आखिर लोग हमे इन सीढ़ियों पर छोड़कर अन्दर क्या करने जाते हैं | आखिर वो ऐसा कौन काम करते हैं जो नंगे पैर ही होता है | कुछ चप्पलें ये सोचकर दुखी होती होंगी कि वो ज़रूर कोई बहुत अच्छा काम करने जा रहा होगा और उसमे हमे शामिल नहीं करना चाहता | लेकिन दूसरी तरफ कुछ चप्पलें ये सोच कर खुश होती होंगी कि चलो अच्छा है वो ज़रूर कोई गलत काम करने जा रहा होगा...इस डर से कि कोई उसे देख ना ले वो मुझे यही छोड़कर जाता होगा |
कुल मिलकर देखा जाये तो इनकी बातें क्या होंगी वो उस जगह पर निर्भर करता है जहाँ ये होती हैं | लेकिन जो भी हो, ये चप्पलें कहीं ना कहीं समाज की उस पद सोपानिक व्यवस्था का प्रतिबिम्ब हैं जिसमे नीचे रहने वाला हमेशा हाशिये पर रहता है | एक ऐसी व्यवस्था जिसमे लोग निचले तबके (?) का इस्तेमाल सिर्फ स्वार्थवश करते हैं, सिर्फ अपने को सुरक्षित रखने के लिए और जहाँ स्वार्थ पूरा हुआ तो छोड़ दिया उन्हें लावारिसों की तरह |
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