रविवार, 26 अप्रैल 2015

शचीन्द्र के लिए..

डायरी से, 1 फरवरी 2014 का एक पन्ना। बहुत दिनों बाद कलम उठाई। बीते कुछ दिन काफी व्यस्तता में गुजरे। लेकिन इतने भी नहीं कि चार लाइनें लिखने की फुर्सत ना मिली हो, बस थोड़ा आलसी टाइप हूँ सो नहीं लिखी। कल रात शचीन्द्र से बात हुयी फेसबुक पर और फोन पर भी। उदास था, निराश और हताश भी। कारण पूछा तो पता लगा कि नौकरी के बिना न इज्ज़त होती है न कीमत। लेकिन शायद अपनी इस हताशा को अपनी सोच और लेखनी पर उतार रहा था। ब्लॉग पर लिखा फिर कभी ना लिखने के लिए। बात करने पर मैं भी वापस 07 जनवरी वाली स्थिति में चला गया। ये हताशा होती ही ऐसी है, कल तक जो हमें लिखने को प्रेरित करता रहा या यूँ कहें कि पीछे पड़ा रहता था आज वह खुद लेखनी छोड़ने को कह रहा था। एक नौकरी जीवन में क्या-कुछ और किस हद तक निर्धारित करती है यह कल पता चला। 

एक घुमक्कड़, चिंतनशील और बातूनी व्यक्ति कल अंधेरे में कहीं गुम सा हुआ जा रहा था अपनी पहचान खोजने को, अपने को कहीं खड़ा देखने के लिए। "अमरीका ना सही लेकिन अब तक कही खड़ा हो जाना चाहिए था" अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ जहां हमारी भी पहचान हो। लेकिन नहीं हुआ। इस नौकरी कि कुंठा ने एक और व्यक्ति को हताश कर दिया था वो भी इस हद तक कि अपना वर्षों का प्रयास छोड़ने की कगार पर था। लेकिन नहीं ऐसा नहीं होगा। शचीन्द्र, मैं कुछ कर तो नहीं सकता लेकिन तुम्हें इस तरह हारने नहीं दूंगा। पता नहीं मैं कुछ कर पाऊँगा या नहीं लेकिन इतना ज़रूर है कि एक दिन हम उठेंगे, चमकेंगे सितारों के बीच अपना स्वतंत्र अस्तित्व और पहचान लिए हुये। तब तक लड़ो, हर उस स्थिति से जो हमे अस्तित्वविहीन करने पर अड़ी हुयी है, और हाँ, करनीचापरकरन कभी चुप नहीं होगा वो हमेशा चापर करता रहेगा हर ऐसी परिस्थिति का जो हमें हताशा की ओर धकेलती है।

बात पुरानी है लेकिन गंभीर थी। आज भी परिस्थितियाँ वही हैं, लेकिन शायद पहले से कहीं ज्यादा दृढ़ और आत्मविश्वास के साथ लेखनी बदस्तूर अपना काम कर रही है। पढ़ कर अच्छा लगता है लेकिन शायद देखकर उससे ज्यादा अच्छा लगता है। लिखते रहो, यही अच्छा है।

3 टिप्‍पणियां:

  1. पता नहीं कैसा दौर था या अभी भी है.. उससे निकलने के रास्ते दिखते हैं, पर दूर लगते हैं। निराशा मेरे अंदर से निकलकर बाहर इसी तरह आती है, शायद। कभी कभी इस पर वापस लौट पड़ता हूँ के हम अपने लिए नहीं अपने आस-पास घिरे घेरे के लिए सब करना चाहते हैं।

    चलो तुम भी वापस यहाँ लौट रहे हो, बढ़िया लगता है, ऐसे लौटना..:)

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  2. ये लौटना कब तक रहेगा पता नहीं, क्योंकि वो दौर अभी गया नहीं है ना। क्या तुम्हारे क्या मेरे, निराशा का बाहर आना ऐसा ही होता है।

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  3. दौर है, इसे जाना ही होगा। कोई भी रुकने के लिए नहीं आता। निराशा में हम जिन क्षणों के इंतेज़ार में घुलते जा रहे हैं, वह आयेंगे ज़रूर। बस पता नहीं कितना और यहाँ रुकना होगा।

    और जहाँ तक लिखने की बात है, इसे कहते रहो, एक सिलसिला बनाओ।

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