शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

बहुत दिनों से..

07 जनवरी 2014। आज क्या हो गया, क्या था ये सब। इतना उदास, इतना कुंठित और भविष्य को लेकर इतना भयभीत कभी नहीं था। अभी कुछ घंटे पहले की ही तो बात है सभी एक साथ बैठे थे, सब कुछ सामान्य था। लेकिन, अचानक सब कुछ बदल गया। शायद ऊपरी तौर पर ही सब सामान्य था लेकिन अंदर एक उठापटक चल रही थी। हो भी क्यों ना एक शादीशुदा व्यक्ति और बेरोजगार लेकिन एक बच्ची का पिता भी, उसके लिए कुछ सामान्य नहीं हो सकता। 

पति या पिता होने में कोई हर्ज़ नहीं लेकिन उनके साथ बेरोजगार होना अखरता है और उस पर बढ़ती उम्र। लेकिन क्या इतना काफी था हताश होने के लिए, शायद हाँ या शायद नहीं। पिता की आशाएँ जो हमेशा उनकी आँखों में दिखती हैं इसलिए शायद आँखों और ज़ुबान की भाषाएँ मेल नहीं खाती, माँ की इच्छाएँ जो उनकी बातों में दिखती हैं और शब्दों में बाहर आती हैं, पत्नी की उम्मीदें जो अक्सर तब दिखाई देती हैं जब बातों-बातों में पता चलता है की फलानी के पति ये करते हैं या वो करते हैं या वो दोनों आज कितना एंजॉय कर रहे हैं अपनी लाइफ को। और यहाँ खुद की इच्छाएँ जो बनती-बिगड़ती योजनाओं में बनती-बिगड़ती रहती हैं, क्या ये सब काफी नहीं था। बातों-बातों में कह रहा था अभी कुछ महीने पहले 27 साल का हुआ था और अब कुछ महीने बाद 28 का हो जाऊंगा। पापा ने कहा यही एक चीज़ है जो कभी नहीं रुकती और ना रोकी जा सकती है। फिर अगली बात, कि चिंता इस बात की नहीं है कि नौकरी नहीं लगेगी वो तो लग ही जाएगी लेकिन चिंता उस एक परसेंट के बाईचांस की है जो आज तक हावी रहा है। अगर इस बार भी ऐसा हुआ तो करने के लिए बचेगा क्या? असल में डर यही था और आज भी है। इन सबके बीच पापा का कहना कि इस उम्र तक मैं आधी गृहस्थी बसा चुका था, छत पे सर आ गयी थी मेरे, तीर की तरह भेदते हुये निकल गयी। ऐसा नहीं कि मखौल उड़ा रहे थे मेरा बल्कि इस बात ने सोचने को विवश कर दिया कि क्या हूँ मैं? मेरा अस्तित्व क्या है? उन्होने साहस भी दिलाया और सांत्वना भी दी।

लेकिन, इतना ही तो काफी नहीं है संभलने के लिए, सो नहीं संभाल पाया खुद को। जिसे नहीं होने देना चाहता था वही हुआ---टूट गया सबके सामने, भावनाओं का ज्वार उच्चतम स्तर पर पहुँच कर उद्द्वेलित हो उठा, बिटिया का चेहरा देखा और मन और आंखे दोनों छलक गयी। उस फूटते ज्वार में मानो सब थम सा गया। एक ही इच्छा थी कि जी भर कर रोऊँ, कोई ना रोके। छोटे भाई ने कंधे पर हाथ रखा तो लगा कि अब नहीं रोक सकता खुद को, सो नहीं रुका। तब पापा ने अपनी शायद पसंदीदा कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाई। याद तो नहीं लेकिन पढ़ी थी हमने भी कभी---ज्यों निकाल कर बादलों की गोद से...। काफी समझाया, हँसाने की भी कोशिश की, सब सामान्य भी हुआ, लेकिन मैं इस झंझावात में अभी भी फसा था और शायद आज भी फसा हूँ। तब तक रहूँगा जब तक नौकरी नहीं लग जाती। उस दिन सोचा था कि वैसा दोबारा ना हो जैसा हुआ था। कोशिश करूंगा कि पापा की आशाएँ, माँ की इच्छाएँ, पत्नी की उम्मीदें पूरी  करने के साथ ही उस उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करूँ जो में सोन चिरईया के लिए होगा। जूझता रहूँगा हर परिस्थिति से, हर कठिनाई से और याद रखूँगा को उसस सीख को जो पापा ने दी और हमेशा देते हैं। आज के बाद वो एक प्रतिशत कभी हावी नहीं होगा मुझ पर या मेरी उम्मीदों पर। लेकिन सब कुछ ना इतना आसान होता है ना सोचा हुआ होता है। ना मैं भीष्म हूँ और ना ऐसी कोई प्रतिज्ञा कर सकता हूँ कि कभी नहीं होगा ऐसा दोबारा।

मैं आज भी वहीं हूँ जहां 07 जनवरी 2014 की रात था। ऐसा भी नहीं हुआ कि उस दिन का रोना आखिरी था। आज भी रो रहा हूँ अंदर ही अंदर, शायद अभी भी जब ये लिख रहा हूँ। बदला ही क्या है सिवाए उम्र बढ़ने के, मेरी भी और बिटिया की भी। विश्वास मरता जा रहा है खुद का, खुद पर से। क्या होगा, आज भी कुछ पता नहीं। सबके लिए सब कुछ करना चाहता हूँ लेकिन नहीं कर पा रहा, छोटी सी बिटिया के लिए भी नहीं। माफ करना सोन-चिरईया।

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