शुक्रवार, 3 जून 2011

भारतीय समाज और नारी

........हमने भी किया था अपने ज़माने में...........तमतमाते हुए अम्मा जी ने कहा | मैंने उनसे पूछा कि क्या आप सिर्फ इसलिए अपने घर कि बहुओं को परदे में रखती हैं क्योंकि आपको भी रखा गया था........हे भगवान ! ये क्या पूछ लिया मैंने........मानो किसी भूखे शेर से उसका निवाला छीन लिया हो | अम्मा जी ने नाक-भौ सिकोड़ते हुए मेरी तरफ देखा और तपाक से बोली.....अजी हम इन्हें परदे में रखते हैं तो क्या बुरा करते हैं और समाज में रहना है या नहीं.......समाज का नाम सुनते ही मेरे दिमाग में अजीब सी हलचल होने लगती है | उन्हें बीच में रोकते हुए मैंने कहा तो क्या समाज के डर से आप अपने परिवार को बन्धनों में रखती हैं.........ज़वाब बड़ा चौकाने वाला था, परिवार थोड़े ही परदे में रहता है वो तो बहुएं हैं.........ये सुनते ही मैंने अपना अगला प्रश्न दे मारा क्या आपकी बहुएं आपके परिवार का हिस्सा नहीं......अब तो अम्मा जी का पारा सातवें आसमान पर था गुस्से में बोली हमने कब कहा कि वो परिवार का हिस्सा नही लेकिन ये तो समाज कि रीत है हर घर में ऐसा ही होता है, और उन्हें हम परदे में न रखें तो क्या करें, ज़माना बड़ा ख़राब है.........
इतने में एक और सज्जन आ खड़े हुए, उनकी शकल बता रही थी कि वो भी रीति रिवाजों के मामले में हिटलर से कम नही होंगे........बीच में कूदते हुए बोले बहुएं तो घर की लक्ष्मी होती हैं और लक्ष्मी को तो परदे में रखा ही जाता है | उनके इस कथन ने तो जैसे मुझे और अधिक जिज्ञासु बना दिया, मैंने पूछा अगर बहुएं लक्ष्मी हैं तो आपके घर की सभी महिलाएं लक्ष्मी का रूप होंगी और उन्हें बाहरी लोगो से खतरा भी होगा..........सज्जन ने मेरे समर्थन में सर हिलाया, उनका समर्थन पाकर मैंने तुरंत प्रश्न किया कि आप इन बाहरी लोगो को चारदीवारी में कैद क्यों नही कर देते इससे तो आपका पूरा परिवार स्वच्छंद होकर जीवन व्यतीत कर सकता है, तब तो आपको अपनी लक्ष्मी को परदे में भी  नहीं रखना पड़ेगा | कुछ देर माहौल में कुछ शांति सी छा गयी, शायद ये तूफ़ान से पहले की शांति थी.........अम्मा जी बहुत देर से कुछ कहने का मौक ढूढ़ रही थी और उन्हें मौका मिल ही गया, जिसका फायेदा उठाकर उन्होंने कहा, अजी गजब की बात करते हो आप लोग एक या दो कि वजह से सबको बंद कर सकते हैं क्या? मैंने कहा अम्मा जी एक या दो तो आपके घर में हैं औरों का क्या? तभी अम्मा जी ने कहा चलो जी आप जैसे लोगो को तो कोई काम है नहीं सिवाए बातें हांकने के, हमें तो घर में भतेरे काम होते हैं और मन ही मन बुदबुदाते हुए घर के कामो में व्यस्त हो गयी........बाकी बचे मैं और वो सज्जन तो वो तो आये ही थे बिन बुलाये मेहमान कि तरह, जैसे आये थे वैसे ही चले भी गए.........लेकिन वे दोनों लोग जाते जाते एक प्रश्न छोड़ गए मेरे मन में कि एक हँसती-खेलती खुशहाल ज़िन्दगी जो अपनी आँखों में ढेरों सपने लेकर अपने माँ-बाप को छोड़ कर किसी के घर बहु के रूप में जाती है तो क्यों उसे घर की इज्ज़त और गृह लक्ष्मी के नाम पर घर की चार दीवारी में कैद कर लिया जाता है मानो उसने कोई अपराध किया हो? और वो भी उस समाज के डर से जिसका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं, जो बना ही है हम जैसे न जाने कितने परिवारों के सहारे | क्या कभी हम ये सोचते हैं कि जब वो घर की लक्ष्मी अपनी हमउम्र लड़कियों को हँसते खेलते देखती होगी तो क्या उसका मन नहीं करता होगा उनके साथ खुशियाँ बांटने का | तो क्यों उसकी सारी खुशियों को घर के अन्य सदस्यों और समाज के रीति रिवाजों के साथ जोड़ दिया जाता है.............आखिर कब तक हम उस अस्तित्वविहीन समाज के डर से अपने परिवारों को दबाते रहेंगे?

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