गुरुवार, 2 जून 2011

मैं और ज़िन्दगी......


मैं दो कदम चलता और एक पल को रूकता मगर, इस एक पल में ज़िन्दगी मुझसे चार कदम आगे चली जाती,
मैं फिर दो कदम चलता और एक पल को रूकता मगर, ज़िन्दगी मुझसे फिर चार कदम आगे चली जाती.
ज़िन्दगी को जीतता देख मैं मुस्कुराता और ज़िन्दगी मेरी मुस्कराहट पर हैरान होती.
ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा,
फिर एक दिन मुझको हँसता देख एक सितारे ने पुछा
"तुम हारकर भी मुस्कुराते हो, क्या तुम्हे दुःख नहीं होता हार का?"
तब मैंने कहा, मुझे पता है एक ऐसी सरहद आएगी जहाँ से ज़िन्दगी चार तो क्या एक कदम भी आगे नहीं जा पायेगी
और तब ज़िन्दगी मेरा इंतज़ार करेगी और मैं तब भी अपनी रफ्तार से यूँ ही चलता-रुकता वहां पहुंचुंगा.........
एक पल रुककर ज़िन्दगी की तरफ देखकर मुस्कुराऊंगा,
बीते सफ़र को एक नज़र देख अपने कदम फिर बढाऊंगा,
ठीक उसी पल मैं ज़िन्दगी से जीत जाऊंगा.
मैं अपनी हार पर मुस्कुराया था और अपनी जीत पर भी मुस्कुराऊंगा,
और ज़िन्दगी,
अपनी जीत पर भी न मुस्कुरा पाई थी और अपनी हार पर भी न मुस्कुरा पायेगी,
बस तभी मैं ज़िन्दगी को जीना सिखाऊँगा....................... 

2 टिप्‍पणियां:

  1. bahut khoob aashish...acha likha hai

    jo jeete...zindagi unke saath jeet jaati hai....
    acha hai ki zindagi hamare saath nhi toh do kadam aagye hi chale....warna ham saas lete reh jayenge au zindagi peeche peeche pata nhi kaha hogi .....saans lena bhi nirathak ho jayega

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