सोमवार, 24 सितंबर 2012

शिक्षक बनाम (?)

दृश्य-1

दिनांक 21-09-2012, समय दोपहर 2 बजे, दसवीं क्लास का इंग्लिश का पेपर | बच्चों के चेहरे पर न कोई डर, न कोई शिकन | ऐसा इसलिए नहीं कि उन्हें सब कुछ आता है बल्कि वजह कुछ और ही है | इतने में इंग्लिश वाले सर आते हैं और मुझे चौकीदार बनाते हुए बच्चों को उत्तर बताने में व्यस्त हो जाते हैं| हांलांकि मैं उस क्लास का इनविजिलेटर था लेकिन उस समय मेरा काम बच्चो को इनविजिलेट  करना नहीं बल्कि ये देखना था की कही चेकिंग वाली टीम न आ जाये |
दृश्य-2
दिनांक 24-09-2012, समय दोपहर 2 बजे, दसवीं क्लास का गणित का पेपर | आज भी बच्चे उसी तरह निर्भीक और निडर | इतने में गणित वाले सर आते हैं और इस डर से कि कहीं रिजल्ट खराब होने से उन्हें मीमो न मिल जाये, अपने काम में लग जाते हैं और मुझे मेरा असली काम मिल जाता है (चौकीदारी का)|

इसी तरह रोज़ स्कूल जाना और वापस आना | इस आने जाने में 5 से 6 घंटे लग जाते हैं| इन 5-6 घंटों में शायद सैकड़ों बार ये सोचता हूँ कि कहीं गलत राह पर तो नहीं चल निकला | कहीं मैं भी इसी भीड़ का हिस्सा ना बन जाऊं जो भेड़चाल को ही अपना आदर्श मानती है | कहीं ऐसा तो नहीं कि आगे चलकर मेरा भविष्य मुझे ही कोसे और कहे की यही चुनना था मेरे लिए | फिर बीच में अरुण की कही हुयी बात भी याद आ जाती है जो उसने मेरी ही एक बात की प्रतिक्रिया में कही थी की तू टीचर इसलिए बनना चाहता है कि कोई और ऑप्शन नहीं है | हालाँकि उस समय मैं कोई जवाब नहीं दे पाया था क्योंकि शायद मैं झेंप गया था | लेकिन इन दो घटनाओं के बाद शायद मेरे पास जवाब है | और जवाब क्या है शायद मेरी झेंप मिटाने का एक साधन है | लेकिन मैं भी क्या करूँ, अपने आदर्शवादी पूर्वाग्रहों से इस हद तक ग्रस्त हो चुका हूँ कि कुछ और सूझता ही नहीं | आदत नहीं है कुछ गलत होता देखने कि और वो भी वहां जहाँ के बारे में कुछ लक्ष्य निश्चित किये हों | क्या करूँ, क्या न करूँ कुछ नहीं पता | व्यवस्था का ऐसा रूप देखकर उस व्यवस्था का हिस्सा बनने में डर लग रहा है जहाँ "आपको पता चलेगा" कि धमकी मिले, जहाँ आदर्शवाद, नैतिकता, ईमानदारी ऐसी लाचार वैश्याएँ है जिनका आए दिन उनके अपनों द्वारा ही बलात्कार होता है, और मैं मूकदर्शक बनकर ऐसा होता हुआ देखता हूँ| जहाँ लोगो द्वारा सुनने को मिलता है कि अभी नया जोश है धीरे-धीरे सब ठंडा पड़ जायेगा | ऐसे में समझ नहीं आता कि जो रास्ता चुना है वो बाई च्वाइस है या बाई चांस | शायद बाई च्वाइस था लेकिन बाई चांस बन गया है | अब तो मजबूरी सा ही लगता है कि चलो कुछ तो मिले | सब कुछ होता हुआ देखने के बाद भी ना कुछ बोल सकते हैं ना कुछ कर सकते हैं आखिर सेलेरी भी तो लेनी है | लिखने को बहुत कुछ है लेकिन शब्दों कि कमी है | चलो जाता हूँ, कल एक बार फिर चौकीदार बनना है तो खुद को भी तो कुछ तैयार कर लूं |

 पता नहीं मैं गलत हूँ या ऐसा ही होता है?

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