मंगलवार, 4 सितंबर 2012

ऊट-पटांग कुछ भी...

चार यार...
शचीन्द्र कहता है कुछ लिखा कर लेकिन क्या लिखूं, अरुण को मेरी बात समझ नहीं आती या शायद वो समझना नहीं चाहता, शचीन्द्र कहता है पूर्वाग्रहों से अलग होने की बात करता है | दूसरी तरफ उमेश तारीफ सुनकर कुप्पा हो रहा है... तारीख 02 सितम्बर 2012 ,  दिन रविवार,  मोर सराय की छत वाया डी. पी. एल., न्यू मून क्लासिक सलून जहाँ 30 +15 जैसा कुछ भी नहीं दिखा, हरदयाल लाइब्रेरी काफी कुछ कहा काफी कुछ सुना | शचीन्द्र की भविष्य की महत्वाकांक्षी योजना, अरुण का एग्जाम प्लान और इन सबके बीच उमेश की 500 रुपईया, एक मिठाई के डिब्बे की कहानी | बात बात में किसी को "दो गलों" वाला कहा तो किसी को नारद मुनि की विशेषता से परिपूर्ण बताया | लेकिन जो भी कहा सच ही तो था, एक कभी नैतिकता और सामाजिकता की पीपड़ी बजाते-बजाते वास्तविकता की बात करने लगता है और व्यवस्था को दोष देता हुआ नयी दिशा ढूंढता है, तो दूसरा सुनी हुई बातों को दुबारा ताली बजा-बजा कर सुनाने में मजे ढूंढता है | मास्टर पढ़ाता नहीं तो हर तीन साल में परीक्षा लो, फेल हो जाये तो एक डिवोशन, और एक इन्क्रीमेंट न मिलने की सजा...इससे भी थोड़ा आगे विदआउट पे 3 महीने का सस्पेंशन | दुराग्रहों से ग्रसित बच्चों को असम मुद्दे पर कैसे समझाया जाये और कैसे उनमे सिविक सेन्स विकसित की जाये इस पर भी चर्चा | सिविक सेन्स विकसित करने का शानदार तरीका बच्चे ने नाम बिगाड़ा तो उसके शरीर पर तबला बजा दिया | एक उन्हें गंदे खून वाला कहकर उसे जस्टिफाई तो करता है लेकिन दूसरा अगर उन्हें मजदूर का बेटा कह दे तो वो रुड हो जाता है, चाहे बच्चे उसे बाहर वालों से डराने की कोशिश ही क्यों ना करें | इन सब के बीच आसाराम पराठे वाले का नाम सुनकर एक और जुड़ जाता है अपनी न्यायिक सक्रियता की कहानी को लेकर | बीच में कॉलेज जाने का झोला कैसा हो, उसका रंग कैसा हो और छोटा ईडियट बॉक्स टेंशन देता है कि घर कब पहुंचना है |  कुल मिलाकर एक बार फिर ५ से ६ घंटे खर्च किये गाल बजाने में लेकिन किसी समस्या का कोई हल नहीं निकला | कोई दूसरों में शामिल होने और अपने को अलग रखने के सच को स्वीकारता नहीं, कोई अपने पूर्वाग्रहों से अलग नहीं होना चाहता और राजनीति का मास्टर होते हुए भी सही जवाब नहीं देना चाहता, कोई नैतिकता और परिवर्तन की बात करते-करते एकलव्य जैसे किसी ब्रांड का निर्माण करके प्रोडक्ट बेचना चाहता है, तो कोई घूमने की पीड़ा से ग्रसित है | सब कितना गड्डमड्ड है, लेकिन ये कोई आज की बात तो है नहीं, ये तो दोबारा होगा | लेकिन इन सब के बीच एक बात तो तय है कि कभी ना कभी अरुण को मेरी बात और उसका कारण ज़रूर समझ आएगा |

1 टिप्पणी:

  1. अच्छा किया जो वापस आ गए..ऐसे ही लिखते रहो.

    कुछ तो हमारी अपनी परिस्थितियाँ हमें ऐसा बनती हैं, पर उसमें ऐसा नहीं है के हमारी भागीदारी नहीं होती. सब हमारी आँखों के सामने होता है और हताशा से संघर्ष बनाने में हम उससे भागते, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे होते रहते हैं. यह उन सबसे हमारा प्रतिरोध जैसा ही है कि हम उससे भागते हुए भी उससे निकल नहीं पाते..या यूँ कहें कि उस हताशा से ही नयी लड़ाईयां निकलेंगी..

    शायद दर्शन ज़रूरत से ज़यादा बघार रहा हूँ इसलिए इतना ही..बाकी तो हम मिलते ही रहेंगे..

    जवाब देंहटाएं